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नज़्म
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
बिछड़ना जब हुआ होगा वो बरसी होंगी सच-मुच में
मैं दिख जाऊँ कहीं इक बार तरसी होंगी सच-मुच में
प्रशान्त मिश्रा मन
नज़्म
असर कुछ ख़्वाब का ग़ुंचों में बाक़ी है तू ऐ बुलबुल
नवा-रा तल्ख़-तरमी ज़न चू ज़ौक़-ए-नग़्मा कम-याबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर डाली है
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था