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नज़्म
मिरे सीने में कब सोज़िंदा-तर दाग़ों के हैं थाले
मगर दोज़ख़ पिघल जाए जो मेरे साँस अपना ले
जौन एलिया
नज़्म
हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बा'द
फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बा'द
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
थमे क्या दीदा-ए-गिर्यां वतन की नौहा-ख़्वानी में
इबादत चश्म-ए-शाइर की है हर दम बा-वज़ू रहना
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ग़रज़ गर्दां हूँ बाद-ए-सुब्ह-गाही की तरह लेकिन
सहर की आरज़ू में शब का दामन थामता हूँ जब
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
वक़्त के अफ़्सूँ से थमता नाला-ए-मातम नहीं
वक़्त ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-फ़ुर्क़त का कोई मरहम नहीं