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नज़्म
तुर्बत है कहाँ उस की मस्कन था कहाँ उस का
अब अपने सुख़न-परवर ज़ेहनों में सवाल आया
साहिर लुधियानवी
नज़्म
संग-ए-तुर्बत है मिरा गिरवीदा-ए-तक़रीर देख
चश्म-ए-बातिन से ज़रा इस लौह की तहरीर देख
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कुछ ऐसे आ गए हैं तंग हम कुंज-ए-असीरी से
कि अब इस से तो बेहतर गोशा-ए-तुर्बत समझते हैं
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
हम अपने दीदा-ए-दिल से तिरी तुर्बत को चूमेंगे
रहेंगे हश्र तक बाक़ी तिरे नग़्मे नहीं फ़ानी
मयकश अकबराबादी
नज़्म
किसी की तुर्बत पे फ़ातिहा के लिए न ये अपने हाथ उठाएँ
दिनों को यूँही फ़सुर्दा राहों की ख़ाक उड़ाईं