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नज़्म
तेरे हम-उम्रों की महफ़िल ही से तो रौनक़ थी
महफ़िलें अब वो सजाऊँ तो सजाऊँ कैसे
सलाहुद्दीन अय्यूब
नज़्म
हर वक़्त मगर पढ़ते रहना कम-उम्रों का तो काम नहीं
सब अपनी अपनी कुर्सी पर सुध-बुध बिसराए बैठे हैं
शौकत परदेसी
नज़्म
या शरारत की शीरीं शकर-क़ंदियों जैसी उम्रों की लज़्ज़त
अभी तक वो ख़ुश-ज़ाएक़ा वाक़िआ
अली मोहम्मद फ़र्शी
नज़्म
कौन सफ़ीना सोचती उम्रों के साहिल से
तोदा तोदा गिरती शामों के पायाब से तेरी जानिब आएगा