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नज़्म
सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन
मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी
जौन एलिया
नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
हुआ ज़माना कि 'सिद्धार्थ' के थे गहवारे
इन्ही नज़ारों में बचपन कटा था 'विक्रम' का
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
उफ़ ये शबनम से छलकते हुए फूलों के अयाग़
इस चमन में हैं अभी दीदा-ए-पुर-नम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
शिकस्ता ख़्वाहिशों के अन-गिनत आसेब बस्ते हैं
जो आधी शब तो रोते हैं फिर आधी रात हँसते हैं