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नज़्म
अक़ल्लीयत कहीं की हो तह-ए-ख़ंजर ही रहती है
हलाकत-ख़ेज़ हाथों के हज़ारों जब्र सहती है
ओवेस अहमद दौराँ
नज़्म
सोचते थे कि हो ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-वफ़ा
तुम में तो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का सलीक़ा भी नहीं
नसीम सय्यद
नज़्म
ख़त्म तुझ पर हो गया लुत्फ़-ए-बयान-ए-आशिक़ी
मर्हबा ऐ वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहान-ए-आशिक़ी
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
थीं खुली जल्वा-गह-ए-ख़ास में राहें उन की
वाक़िफ़-ए-राज़-ए-हक़ीक़त थीं निगाहें उन की