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नज़्म
इस के दम से हम पे वाज़ेह उक़्दा-ए-मर्ग-ओ-हयात
इस के दम से हम पे रौशन है जहान-ए-काएनात
अता आबिदी
नज़्म
कहीं चलने को आगे जिस का वाज़ेह कुछ तसव्वुर ही नहीं कोई
हमारे सब मसाइल जिन का हम पर बोझ है इतना
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मगर अपनाइयत के ताने-बाने बुन रहा हूँ मैं
मिरी ख़ामोश नज़रों के तक़ाज़े तुम पे वाज़ेह हैं
क़ैसर-उल जाफ़री
नज़्म
तेरी ख़ुद-ना-तमामी न वाज़ेह हुई तो हिकायत शिकायत करेंगे
और कुछ लग़्ज़िशों की नदामत करेंगे