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नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आज तो हम बिकने को आए, आज हमारे दाम लगा
यूसुफ़ तो बाज़ार-ए-वफ़ा में, एक टिके को बिकता है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
यूँ कहने को राहें मुल्क-ए-वफ़ा की उजाल गया
इक धुँद मिली जिस राह में पैक-ए-ख़याल गया
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
अहल-ए-क़फ़स की सुब्ह-ए-चमन में खुलेगी आँख
बाद-ए-सबा से वअदा-ओ-पैमाँ हुए तो हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो जिन की फ़िक्र में रहती थी मैं 'वफ़ा' बेचैन
ग़म-ओ-ख़ुशी के मिरे तर्जुमान हो गए हैं
अमतुल हई वफ़ा
नज़्म
सब्र का फल लोग कहते हैं मिलेगा एक दिन
आह कब तक इंतिज़ार-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा करूँ