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नज़्म
फ़लक पे वज्द में लाती है जो फ़रिश्तों को
वो शाएरी भी बुलूग़-ए-मिज़ाज-ए-तिफ़्ली है
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
वो मेरा शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बाम-ओ-दर को वज्द आता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कभी जब कोई अच्छी चीज़ पढ़ने के लिए मिलती
तो पहरों रूह पर इक वज्द की सी कैफ़ियत होती
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
वो इक बुत थी ये सारी वादियाँ बुत-ख़ाना थीं उस का
वो इस फ़िरदौस-ए-वज्द-ओ-रक़्स में मस्ताना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
मैं ने माना वज्द में दुनिया को ला सकता है तू
मैं ने ये माना ग़म-ए-हस्ती मिटा सकता है तू