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नज़्म
मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है
मिरी फ़ितरत को ख़ूँ-रेज़ी के अफ़्साने से रग़बत है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ख़ून-चाशीदा सदियों का वो घोर-अँधेरा बिखर गया
जंग-ओ-जदल का जज़्बा जागा अम्न का परचम उतर गया
अख़्तर राही
नज़्म
और उमँड आई थी वक़्त-ए-जंग दरिया की तरह
रावन-ए-खूँ-ख़्वार और वो कोह-पैकर इस के देव
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
नज़्म
थे रक़म जिन में जिहाद-ओ-जंग-ए-आज़ादी के बाब
ताक़-ए-निस्याँ में उन्ही औराक़ को फेंका गया