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नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
बुज़ुर्गों से विर्से में हम को मिले थे
उन्हें पढ़ के हम सब ये महसूस करने लगे
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
तुम ज़ेहनों पर यलग़ार करो अफ़्कार जगाते जाएँगे
तुम विर्से को मिस्मार करो शाहकार बनाते जाएँगे
रेहान अल्वी
नज़्म
वहीद अख़्तर
नज़्म
सज़ा की रुत के तवील दिन का ख़तीर विर्सा मिरा बदन है मिरा लहू है
मैं अपने विर्से से दस्त-कश हूँ
अख़्तर हुसैन जाफ़री
नज़्म
इस का फिर विर्से में मिलना भी तअज्जुब-ख़ेज़ है
ख़ानदानी क़िस्म का दुख है हज़र-अंगेज़ है
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
बुज़ुर्गों से विर्से में हम को मिले थे
उन्हें पढ़ के हम सब ये महसूस करने लगे