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नज़्म
मगर क्या कीजिए जब फ़ैसला ये है मशिय्यत का
कि मैं फ़ितरत की आँखों से गिरूँ अश्क-ए-रवाँ हो कर
अहसन अहमद अश्क
नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
सब्र की महफ़िल में इक तू ही है लज़्ज़त-आश्ना
ज़ब्त-ए-राज़-ए-इश्क़ में हो जाती है ख़ुद ही फ़ना
साक़िब कानपुरी
नज़्म
तड़प रहे हैं जो तूफ़ाँ मिरे ख़यालों में
वो बंद-ए-ज़ब्त-ओ-तहम्मुल से आ न टकराएँ
ख्वाजा मंज़र हसन मंज़र
नज़्म
'मुनीर' आसाँ नहीं है राह-ए-उल्फ़त से गुज़रना भी
ये लाज़िम है कि हो ले ख़ूगर-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ पहले
मुनीर वाहिदी
नज़्म
देखिए देते हैं किस किस को सदा मेरे बाद
'कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़गन-ए-इश्क़'
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
थे बहुत बेदर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मेहर सुब्हें मेहरबाँ रातों के बा'द