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नज़्म
जब बदन वो नाम लेता है तो ऐसे झुनझुनाता है कि जैसे
उस की ज़हरी उँगलियों ने छू लिया हो
बिमल कृष्ण अश्क
नज़्म
मैं घबरा के पीछे हटा और मैं ने कहा नादान!
साँप कि पत्थर तोड़ के रख दे जिस का ज़हरी वार
सहबा अख़्तर
नज़्म
सो मैं ने साहत-ए-दीरोज़ में डाला है अब डेरा
मिरे दीरोज़ में ज़हर-ए-हलाहल तेग़-ए-क़ातिल है
जौन एलिया
नज़्म
अख़्तर शीरानी
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
वो हिकमत नाज़ था जिस पर ख़िरद-मंदान-ए-मग़रिब को
हवस के पंजा-ए-ख़ूनीं में तेग़-ए-कार-ज़ारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
किसी ने ज़हर-ए-ग़म दिया तो मुस्कुरा के पी गए
तड़प में भी सुकूँ न था, ख़लिश भी साज़गार थी