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नज़्म
दिल रहें हैं सौमा-ए-दस्तार रेहन-ए-मै-कदा
था ज़मीर 'जाफ़री' भी इक मज़ेदार आदमी
सय्यद ज़मीर जाफ़री
नज़्म
नग़्मा-ए-बुलबुल हो या आवाज़-ए-ख़ामोश-ए-ज़मीर
है इसी ज़ंजीर-ए-आलम-गीर में हर शय असीर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गरचे बिल्कुल बे-गुनह था हो गया लेकिन वज़ीर
यानी इक झोंका जो आया बुझ गई शम्-ए-ज़मीर
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
ज़र्फ़-ए-नैसाँ चाहती है क़ुल्ज़ुम-आशामी तिरी
बर्ग-ए-गुल की तरह शबनम के लिए तरसा न कर
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
न अब वो रिश्ता-ए-ज़ुन्नार है न ज़र्फ़-ए-वज़ू
तमाम तौक़-ओ-सलासिल पिघलने वाले हैं
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
ऐ ज़र्फ़-ए-दीद तू ही बता बज़्म-ए-तूर से
जल्वा जो उठ गया है तो मंज़र को क्या करूँ
राम लाल वर्मा हिंदी
नज़्म
उँगलियाँ ख़ून से तर दिल-ए-कम-ज़र्फ़ को है वाहम-ए-अर्ज़-ए-हुनर
दिन की हर बात हुई बे-तौक़ीर