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नज़्म
मुस्लिम से तनफ़्फ़ुर और कुफ़्फ़ार से याराना
आख़िर ये क़ला-बाज़ी क्यूँ खा गए मौलाना
ज़रीफ़ लखनवी
नज़्म
क्या जाने उस ज़रीफ़ के क्या दिल में आई थी
कर्फ़्यू में जिस ने महफ़िल-ए-शेरी सजाई थी
खालिद इरफ़ान
नज़्म
मय-कदा है यहाँ सामान-ए-मसर्रत हैं ज़रीफ़'
आ भी जाओ मियाँ बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर होली में
ज़रीफ़ देहल्वी
नज़्म
मैं ने माना शे'र मेरे कुछ नहीं फिर भी ज़रीफ़'
कुछ न कुछ महफ़िल का इन से रंग तो जम जाए है
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
देता है ख़बर अंजाम कि साक़ी रात गुज़रने वाली है
और दिन का है पैग़ाम कि साक़ी रात गुज़रने वाली है
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
हमारा बाहमी रिश्ता जो हासिल-तर था रिश्तों का
हमारा तौर-ए-बे-ज़ारी भी कितना वालिहाना है
जौन एलिया
नज़्म
वो हिकमत नाज़ था जिस पर ख़िरद-मंदान-ए-मग़रिब को
हवस के पंजा-ए-ख़ूनीं में तेग़-ए-कार-ज़ारी है