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अनीस अंसारी

1949 | फतेहपुर, भारत

अनीस अंसारी के शेर

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मैं ने आँखों में जला रखा है आज़ादी का तेल

मत अंधेरों से डरा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

नाम तेरा भी रहेगा सितमगर बाक़ी

जब है फ़िरऔन चंगेज़ का लश्कर बाक़ी

तिरी महफ़िल में सब बैठे हैं कर

हमारा बैठना दुश्वार क्यूँ है

जो परिंदे उड़ नहीं सकते अब उन की ख़ैर हो

आने वाला है इसी जानिब शिकारी हाए हाए

लाश क़ातिल ने खुली फेंक दी चौराहे पर

देखने वाला कोई घर से बाहर निकला

बड़ा आज़ार-ए-जाँ है वो अगरचे मेहरबाँ है वो

अगरचे मेहरबाँ है वो बड़ा आज़ार-ए-जाँ है वो

हिज्र के छोटे गाँव से हम ने शहर-ए-वस्ल को हिजरत की

शहर-ए-वस्ल ने नींद उड़ा कर ख़्वाबों को पामाल किया

तुम को भी पहचान नहीं है शायद मेरी उलझन की

लेकिन हम मिलते रहते तो अच्छा ही रहता जानम

कभी दरवेश के तकिया में भी कर देखो

तंग-दस्ती में भी आराम मयस्सर निकला

तुम दर्द की लज़्ज़त क्या जानो कब तुम ने चखे हैं ज़हर-ए-सुबू

हम अपने वजूद के शाहिद हैं संगसार हुए शमशीर हुए

बना कर रख तू घर अच्छा रहेगा

तू मालिक बन किराए-दार क्यूँ है

हर एक शख़्स तुम्हारी तरह नहीं होता

कोई किसी से मोहब्बत कहाँ करे कैसे

एक ग़म होता तो सीने से लगा लेता कोई

ग़म का अम्बार उठाने पे पहुँचा आख़िर

हिज्र में वैसे भी आती है मुसीबत जान पर

पर रक़ीबों की अलग है ख़ंदा-कारी हाए हाए

तिरी आँखों ने धोया है मुझे यूँ

मैं बिल्कुल साफ़-सुथरा हो गया हूँ

तोतली उम्र में जो बच्चा ज़रा मुशफ़िक़ था

कुछ बड़ा हो के दहाने पे पहुँचा आख़िर

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