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गुलनार आफ़रीन

1942 | कराची, पाकिस्तान

गुलनार आफ़रीन के शेर

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जीने का मज़ा गर्दिश-ए-अय्याम आया

क्या बात है हम पर कोई इल्ज़ाम आया

ये और बात है तुम्हें पा कर गँवा दिया

लेकिन तुम्हारा ग़म ग़म-ए-दौराँ बना दिया

सौदा है ज़मीरों का हर गाम तिजारत है

चुप हूँ तो क़यामत है बोलूँ तो बग़ावत है

तंज़ का ज़हर भरा होता है अब बातों में

लुत्फ़ क्या आएगा लोगों से मुलाक़ातों में

कैसे रिश्ते कैसे नाते झूटे सारे बंधन हैं

चाहत जाने क़ैद है कब से नफ़रत के तह-ख़ानों में

दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने

मेरे पैराहन-ए-जाँ से तिरी ख़ुशबू आए

एक परछाईं तसव्वुर की मिरे साथ रहे

मैं तुझे भूलूँ मगर याद मुझे तू आए

अश्कों के गुहर भी तो नहीं पास मिरे अब

मैं सोच रही हूँ ग़म-ए-दौराँ तुझे क्या दूँ

किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़

रौशनी सी जो है ज़िंदाँ के हर इक रौज़न में

कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को

कितने फूलों की महक है तिरे पैराहन में

हम सर-ए-राह-ए-वफ़ा उस को सदा क्या देते

जाने वाले ने पलट कर हमें देखा भी था

क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता

हालाँकि यहाँ अपने पराए भी वही हैं

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

जो दर्द है वो रूह की गहराइयों में है

'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में बात कर

वो ज़हर पी के देख जो सच्चाइयों में है

सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो

बहार बन के कोई अब तो हम-सफ़र आए

ये तिलिस्म-ए-मौसम-ए-गुल नहीं कि ये मोजज़ा है बहार का

वो कली जो शाख़ से गिर गई वो सबा की गोद में पल गई

हमें भी अब दर दीवार घर के याद आए

जो घर में थे तो हमें आरज़ू-ए-सहरा थी

बग़ैर सम्त के चलना भी काम ही गया

फ़सील-ए-शहर के बाहर भी एक दुनिया थी

वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा

हाथ में वो हाथ ले कर उम्र भर चलता रहा

एक आँसू याद का टपका तो दरिया बन गया

ज़िंदगी भर मुझ में एक तूफ़ान सा पलता रहा

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