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ख़ालिद मुबश्शिर

1980 | दिल्ली, भारत

ख़ालिद मुबश्शिर

ग़ज़ल 15

नज़्म 11

अशआर 8

अनासिर की घनी ज़ंजीर है

सो ये हस्ती की इक ताबीर है

टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है

जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था

तुम्हारी याद का मरहम बनाम-ए-दिल कर दूँ

तमाम हिज्र के ज़ख़्मों को मुंदमिल कर दूँ

तुम्हारी याद का मरहम बनाम-ए-दिल कर दूँ

तमाम हिज्र के ज़ख़्मों को मुंदमिल कर दूँ

मुझे शक है होने होने पे 'ख़ालिद'

अगर हूँ तो अपना पता चाहता हूँ

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