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Mah Laqa Chanda's Photo'

मह लक़ा चंदा

1768 - 1824 | हैदराबाद, भारत

एक क्लासिकी शायरा, मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा सौदा की समकालीन

एक क्लासिकी शायरा, मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा सौदा की समकालीन

मह लक़ा चंदा के शेर

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बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है

ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है

उन को आँखें दिखा दे टुक साक़ी

चाहते हैं जो बार बार शराब

कभी सय्याद का खटका है कभी ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ

बुलबुल अब जान हथेली पे लिए बैठी है

गर मिरे दिल को चुराया नहीं तू ने ज़ालिम

खोल दे बंद हथेली को दिखा हाथों को

गुल के होने की तवक़्क़ो पे जिए बैठी है

हर कली जान को मुट्ठी में लिए बैठी है

'चंदा' रहे परतव से तिरे या अली रौशन

ख़ुर्शीद को है दर से तिरे शाम-ओ-सहर फ़ैज़

हम जो शब को ना-गहाँ उस शोख़ के पाले पड़े

दिल तो जाता ही रहा अब जान के लाले पड़े

दरेग़ चश्म-ए-करम से रख कि ज़ालिम

करे है दिल को मिरे तेरी यक नज़र महज़ूज़

दिल हो गया है ग़म से तिरे दाग़दार ख़ूब

फूला है क्या ही जोश से ये लाला-ज़ार ख़ूब

संग-ए-रह हूँ एक ठोकर के लिए

तिस पे वो दामन सँभाल आता है आज

तीर तलवार से बढ़ कर है तिरी तिरछी निगह

सैकड़ों आशिक़ों का ख़ून किए बैठी है

नादाँ से एक उम्र रहा मुझ को रब्त-ए-इश्क़

दाना से अब पड़ा है सरोकार देखना

गरचे गुल की सेज हो तिस पर भी उड़ जाती है नींद

सर रखूँ क़दमों पे जब तेरे मुझे आती है नींद

ब-जुज़ हक़ के नहीं है ग़ैर से हरगिज़ तवक़्क़ो कुछ

मगर दुनिया के लोगों में मुझे है प्यार से मतलब

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