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Mazhar Mirza Jaan-e-Janaan's Photo'

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ

1699 - 1781 | दिल्ली, भारत

मारूफ़ क्लासिकी शायर, सूफ़ियाना मिज़ाज रखने वाले धर्मशास्त्री (आलिम) जिन्हें धार्मिक कारणों के आधार पर क़त्ल किया गया

मारूफ़ क्लासिकी शायर, सूफ़ियाना मिज़ाज रखने वाले धर्मशास्त्री (आलिम) जिन्हें धार्मिक कारणों के आधार पर क़त्ल किया गया

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ का परिचय

उपनाम : 'मज़हर'

मूल नाम : शमसुद्दीन हबीबुल्लाह

जन्म : 03 Mar 1699 | आगरा, उत्तर प्रदेश

निधन : 07 Jan 1781 | दिल्ली, भारत

ख़ुदा के वास्ते इस को टोको

यही इक शहर में क़ातिल रहा है

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ (1699-1781) जिन्हें उनके लक़ब शम्सुद्दीन हबीबुल्लाह के नाम से भी जाना जाता है, एक रिवायत के मुताबिक़ आगरा में पैदा हुए, और एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ मालवा के इलाक़े काला बाग़ में। उनके वालिद दकन से आगरा हिज्रत कर गए थे, जहाँ जान-ए-जानाँ ने इब्तिदाई तालीम हासिल की। बाद अज़ाँ उनके वालिद दिल्ली आए और बादशाह औरंगज़ेब के दरबार में एक आला मंसब हासिल किया। जान-ए-जानाँ ने अपने वालिद से सूफ़ियाना मैलान की विरासत पाई, जिसे उन्होंने बुलंदियों तक पहुँचाया और नक़्शबंदी सिलसिले के एक अज़ीम सूफ़ी की हैसियत से उभरे। उनके बेशुमार मुरीदीन थे जो उनकी बेनज़ीर रुहानी और शेरी सलाहियतों के सबब उनका बेहद एहतिराम करते थे। शाही और उमरा के हल्क़ों में भी उनकी यकसाँ इज़्ज़त थी। उनके हमअस्र अज़ीम इस्लामी स्काॅलर शाह वलीउल्लाह उनके इस्लामी उलूम और सुन्नत-ए-रसूल की नादिर फ़हम की बुनियाद पर उन्हें बहुत क़द्र की निगाह से देखते थे।

ज़राए बताते हैं कि मज़हबी अक़ीदे के मुआमलात में इख़्तिलाफ़ और अपने अक़ाइद के खुले इज़हार की वजह से उन्हें एक शिद्दत-पसंद ने, जो किसी और इस्लामी मसलक से तअल्लुक़ रखता था, वहशियाना हमले में क़त्ल कर दिया। वो दिल्ली में दफ़्न हैं लेकिन ज़्यादातर लोग उनसे ना-वाक़िफ़ हैं। सिर्फ़ वही लोग जो उनकी रुहानी और शेरी अज़मत को समझते हैं, उनके नाम, काम औरम मक़ाम से वाक़िफ़ हैं।

जान-ए-जानाँ फ़ारसी और उर्दू दोनों ज़बानों के एक अज़ीम शायर के तौर पर तस्लीम किए जाते हैं, अगरचे उर्दू में उनका कलाम फ़ारसी के मुक़ाबले में बहुत कम है। उन्होंने फ़ारसी के इज़हार के अंदाज़ को तर्जीह दी और उर्दू को एक अदबी ज़बान के तौर पर मालामाल करने का रास्ता हमवार किया। उन्होंने शायरी के फ़न और हुनर को ज़्यादा अहमियत नहीं दी बल्कि एक फ़ित्री और बराह-ए-रास्त इज़हार का तरीक़ा इख़्तियार किया। चूँकि उन्होंने फ़ारसी की नज़ाकत को उर्दू शायरी में मुंतक़िल किया, इसलिए उन्होंने फ़िक्र और ज़बान में मुब्हम और पेचीदा अंदाज़ की तरदीद की और शायरी को इंसानी फ़हम के क़रीब लाए। उनका लहजा उनके मक़ाम के मुआसिर लहजे की बाज़गश्त था, लेकिन उसमें दकनी बोली की झलक भी शामिल थी।

जान-ए-जानाँ ने फ़ारसी का एक दीवान “दीवान-ए-मज़हर”, ख़ुतूत के तीन मजमुए, और फ़ारसी क्लासिकी असातिज़ा के मुंतख़ब अशआर का एक इंतिख़ाब “ख़ैरात-ए-जवाहर” के नाम से छोड़ा है।

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