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मिर्ज़ा अली लुत्फ़

- 1813

मिर्ज़ा अली लुत्फ़ के शेर

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यही तो कुफ़्र है यारान-ए-बे-ख़ुदी के हुज़ूर

जो कुफ़्र-ओ-दीं का मिरे यार इम्तियाज़ रहा

बैठ कर मस्जिद में रिंदों से इतना बिगड़ए

शैख़-जी आते हो मयख़ाने के भी अक्सर तरफ़

पाकी-ए-दामान-ए-गुल की खा बुलबुल क़सम

रात भर सरशार-ए-कैफ़िय्यत मैं शबनम से रहा

क्या सबब बतलाएँ हँसते हँसते बाहम रुक गए

ख़ुद-बख़ुद कुछ वो खींचे ईधर उधर हम रुक गए

देर तक ज़ब्त-ए-सुख़न कल उस में और हम में रहा

बोल उठे घबरा के जब आख़िर के तईं दम रुक गए

बेगानों ने कभी वो कानों सुनाई बात

अफ़्सोस आश्ना ने जो आँखों दिखाई बात

इधर से जितनी यगानगत की उधर से उतनी हुई जुदाई

बढ़ाई थोड़ी सी जब इधर से बहुत सी तुम ने उधर घटाई

हुआ आवारा हिन्दोस्ताँ से 'लुत्फ' आगे ख़ुदा जाने

दकन के साँवलों ने मारा या इंगलन के गोरों ने

हम और फ़रहाद बहर-ए-इश्क़ में बाहम ही कूदे थे

जो उस के सर से गुज़रा आब मेरी ता-कमर आया

आज क्या जाने वो क्यूँ आराम-ए-जाँ आया नहीं

हर्फ़-ए-रंजिश कल तो कोई दरमियाँ आया नहीं

खुल गया अब ये कि वस्ल उस का ख़याल-ए-ख़ाम है

आज उम्मीदों का दिल ही दिल में क़त्ल-ए-आम है

कर 'लुत्फ' नाहक़ रहरवान-ए-दैर से हुज्जत

यही रस्ता तो खा कर फेर है का'बे को जा निकला

किस को बहलाते हो शीशे का गुलू टूट गया

ख़ुम मिरे मुँह से लगा दो जो सुबू टूट गया

नहीं वो हम कि कहने से तिरे हर बुत के बंदे हों

करे पैदा भी गर नासेह तू उस ग़ारत-गर-ए-दीं सा

याद ने उन तंग कूचों की फ़ज़ा सहरा की देख

हर क़दम पर जान मारी है दिल-ए-नाकाम की

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