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मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

1766 - 1855 | लखनऊ, भारत

अवध के नवाब, आसिफ-उद-दौला के ममेरे भाई, कई शायरों के संरक्षक

अवध के नवाब, आसिफ-उद-दौला के ममेरे भाई, कई शायरों के संरक्षक

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

ग़ज़ल 23

अशआर 20

लुत्फ़-ए-शब-ए-मह दिल उस दम मुझे हासिल हो

इक चाँद बग़ल में हो इक चाँद मुक़ाबिल हो

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या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप

या ख़फ़ा हैं हम से वो और हम मना सकते नहीं

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तेज़ रखियो सर-ए-हर-ख़ार को दश्त-ए-जुनूँ

शायद जाए कोई आबला-पा मेरे बाद

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दिल में इक इज़्तिराब बाक़ी है

ये निशान-ए-शबाब बाक़ी है

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काफ़िर से ख़ल्वत ज़ाहिद से उल्फ़त

हम इक बज़्म में थे ये सब से जुदा थे

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पुस्तकें 6

 

ऑडियो 5

क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए

जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ

जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई

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