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मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

1910

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

ग़ज़ल 37

अशआर 8

ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो

यही जीने का सामाँ हैं तो फिर इन में कमी क्यूँ हो

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उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो

जो अपने साथ राह-ए-शौक़ में दो गाम आता है

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ग़म अपना अब ख़ुशी अपनी

यानी दुनिया बदल गई अपनी

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कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने

हज़ारों मंज़िलें हैं मंज़िल-ए-आराम आने तक

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जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं

ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं

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