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नसीम देहलवी

1799/ 1800 - 1866 | दिल्ली, भारत

नसीम देहलवी

ग़ज़ल 59

अशआर 52

क्या उस हराम-ख़ोर को जुज़ मुर्दा है नसीब

आया मुँह में गोर के लुक़्मा हलाल का

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ख़ूब ही फिर तो समझता मैं दिल-ए-दुश्मन से

एक साअ'त मिरे पहलू में अगर तू होता

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मज़मून के भी शे'र अगर हों तो ख़ूब हैं

कुछ हो नहीं गई ग़ज़ल-ए-आशिक़ाना फ़र्ज़

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सैकड़ों मन से भी ज़ंजीर मिरी भारी है

वाह क्या शौकत-ए-सामान-ए-गुनह-गारी है

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हुब्ब-ए-दुनिया उल्फ़त-ए-ज़र दिल से दम-भर कम नहीं

उस पर ज़ाहिद इरादा है ख़ुदा की याद का

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