रज़ा अश्क के शेर
अजीब वक़्त है अब दोस्तों के चाक़ू को
मिरे क़लम की नहीं उँगलियों की हसरत है
रह-ए-हयात का मैं ऐसा इक मुसाफ़िर था
कि जैसे शहर की सड़कों से बस का रिश्ता था
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टैग : मुसाफ़िर
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दामन बचा के आइयो मेरे मज़ार तक
ऐ जान-ए-नौ-बहार उगे हैं इधर बबूल
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