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रिन्द लखनवी

1797 - 1857 | लखनऊ, भारत

रिन्द लखनवी के शेर

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टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ

जब तो इक सूरत भी थी अब साफ़ वीराना हुआ

चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा

चाँद सी जिस ने वो सूरत देख ली

अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ

तू हाए गुल पुकार मैं चिल्लाऊँ हाए दिल

काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्ताँ से मैं

किस बुत में शहर-ए-हिन्द के शान-ए-ख़ुदा थी

मौत जाए क़ैद में सय्याद

आरज़ू हो अगर रिहाई की

अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है

कौन उठाएगा तिरी जौर जफ़ा मेरे बाद

हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत

सब बजा आप जो फ़रमाइएगा

शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम

जान आँखों में मिरी जान रहा करती है

रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे

क्या मिलोगे कभी राह में आते जाते

किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है

ग़रज़ बारह महीने तीस दिन हम को मोहर्रम है

मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में

क्यूँ जी शराब की हैं दुकानें यहाँ कहीं

परी हुस्न तिरा रौनक़-ए-हिंदुस्ताँ है

हुस्न-ए-यूसुफ़ है फ़क़त मिस्र के बाज़ार का रूप

मय पिला ऐसी कि साक़ी रहे होश मुझे

एक साग़र से दो आलम हों फ़रामोश मुझे

दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर

मेरी आँखों से कोई देखे तमाशा तेरा

लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी

कू-ब-कू मैं हूँ तो तू भी दर-ब-दर हो जाएगा

आँख से क़त्ल करे लब से जलाए मुर्दे

शोबदा-बाज़ का अदना सा करिश्मा देखो

शब-ए-फ़ुर्क़त कर मुझ पर अज़ाब

मैं ने तेरा मुँह नहीं काला किया

नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से

अब वो दिल वो दिमाग़ रहा

आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की

जो चाल तुम चले वो ज़माने में चल गई

ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी

हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर नहीं मिलता

हूर पर आँख डाले कभी शैदा तेरा

सब से बेगाना है दोस्त शनासा तेरा

तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़

ठहरते ठहरते ठहर जाएगी

पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़

बुत को पूजा ख़ुदा ख़ुदा कर के

बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है

सरापा रूह का आलम है तेरे जिस्म-ए-उर्यां में

क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई

दूर से जब कोई सहरा में बगूला उट्ठा

लैला मजनूँ का रटती है नाम

दीवानी हुई है बक रही है

था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी

या सनम कह कर पढ़ा मकतब में बिस्मिल्लाह को

फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर

चार दिन और हवा बाग़ की खा ले बुलबुल

परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है

क़फ़स को ले के मैं उड़ जाऊँगा कहाँ सय्याद

करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ

मिरे तरीक़ में तन्हा-ख़ोरी हलाल नहीं

अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का

रंग लाया है दुपट्टा तिरा मैला हो कर

हों वो काफ़िर कि मुसलमानों ने अक्सर मुझ को

फूँकते का'बे में नाक़ूस कलीसा देखा

इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए

एक से एक ज़माने में तरहदार बहुत

जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से

तौक़-ए-गर्दन बन गई है मेरी दानाई मुझे

काफ़िर हूँ फूँकूँ जो तिरे काबे में शैख़

नाक़ूस बग़ल में है मुसल्ला समझना

रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से

घंटा रहा गले में ज़ुन्नार रह गया

उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है

कई बरस में हुआ है मिज़ाज-दाँ सय्याद

दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी

क्या अब के बरस चाक गरेबाँ करेंगे

हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब

ढूँढता फिरता हूँ गर्दूं पर सहर मिलती नहीं

ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों

वो परी जब तक कर ले दर-ब-दर मिलती नहीं

बचेगा काविश से मिज़्गाँ के दिल

कि नश्तर बहुत आबला एक है

लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा

इक इक गुल का दिल पे दाग़ रहा

फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह

ज़ब्ह कर डालूँगा अब की जो कबूतर बहका

मुज़्दा-बाद बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका

मदरसे खोदे गए तामीर मय-ख़ाना हुआ

खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद

मैं माजरा-ए-चमन क्या करूँ बयाँ सय्याद

रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से

शौकत-ए-काबा तो है शान-ए-कलीसा देखो

इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए

अगले बरस के थे जो गरेबाँ सिए हुए

मंज़िल-ए-इश्क़ की है रह हमवार

बुलंदी है याँ पस्ती है

मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से

मैं सेर हो के पीता था शीर-ए-मादर को

क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ

जाते हैं सू-ए-जेब जो बे-इख़्तियार हाथ

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