तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल 41
नज़्म 8
अशआर 23
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
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दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
तू जो सुन ले तो मुख़्तसर भी हूँ
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नींद ऐसी कि रात कम पड़ जाए
ख़्वाब ऐसा कि मुँह खुला रह जाए
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मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है
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वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वो पेड़ मुझ से कोई बात क्यूँ नहीं करता
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क़ितआ 1
चित्र शायरी 3
वीडियो 15
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