विजय शर्मा
ग़ज़ल 20
नज़्म 1
अशआर 9
नई नहीं है ये तन्हाई मेरे हुजरे की
मरज़ हो कोई भी है चारागर से डर जाना
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इक मोहब्बत भरे सिनेमा में
मेरे मरने का सीन मेरे ख़्वाब
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'अर्श' बहारों में भी आया एक नज़ारा पतझड़ का
सब्ज़ शजर के सब्ज़ तने पर इक सूखी सी डाली थी
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ऐ ज़िंदगी कभी इंकार का सबब भी सुन
मैं थक गया हूँ तेरी हाँ में हाँ मिलाते हुए
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क्यूँ न तश्बीह फूल हो उस की
वो जो ख़ुशबू सा दास्तान में है
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