मोहम्मद हमीद शाहिद की कहानियाँ
रुकी हुई ज़िंदगी
वो खाने पर टूट पड़ा, नदीदा हो कर। आतिफ़ उसे देख रहा था, हक दक। कराहत का गोला पेट के वसत से उछल-उछल कर उसके हुल्क़ूम में घूँसे मार रहा था, यूँ कि उसे हर नए वार से ख़ुद को बचाने के लिए ध्यान इधर-उधर बहकाना और बहलाना पड़ता। वो भूका था। शायद बहुत
नई इलेक्ट्रा
वो कहती है, वो योरीपिडीज़ की इलेक्ट्रा जैसी है। फ़र्क़ है तो इतना सा कि पुराने वाली इलेक्ट्रा को उसकी बेवफ़ा माँ और उसके बद-तैनत आ’शिक़ की वज्ह से सब कुछ छोड़ना पड़ा, जब कि उसे या’नी नई इलेक्ट्रा को, जिन लोगों की वज्ह से घर-बदरी पर मजबूर होना पड़ा उनमें
दुख कैसे मरता है
इमरजेंसी वार्ड में दाख़िल होते ही नबील का दिल उलटने लगा, ज़ख़्मों पर लगाई जाने वाली मख़सूस दवाओं की तेज़ बू ने साँसों की सारी अमी-जमी उखाड़ दी थी। उसे मेडिकल वार्ड नंबर तीन जाना था मगर इस हस्पताल में ख़राबी ये थी कि अंदर दाख़िल होते ही पहले इमरजेंसी वार्ड