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पल्लव मिश्रा

1998 | दिल्ली, भारत

उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल में एक अहम नाम, शायरी में ज़बान की लताफ़त और एहसासात की गहराई का हसीन इम्तिज़ाज

उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल में एक अहम नाम, शायरी में ज़बान की लताफ़त और एहसासात की गहराई का हसीन इम्तिज़ाज

पल्लव मिश्रा के शेर

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मैं एक ख़ाना-ब-दोश हूँ जिस का घर है दुनिया

सो अपने काँधे पे ले के ये घर भटक रहा हूँ

मैं तुझ से मिलने समय से पहले पहुँच गया था

सो तेरे घर के क़रीब कर भटक रहा हूँ

ये तय हुआ था कि ख़ूब रोएँगे जब मिलेंगे

अब उस के शाने पे सर है तो हँसते जा रहे हैं

ये जिस्म तंग है सीने में भी लहू कम है

दिल अब वो फूल है जिस में कि रंग-ओ-बू कम है

मैं अपनी मौत से ख़ल्वत में मिलना चाहता हूँ

सो मेरी नाव में बस मैं हूँ नाख़ुदा नहीं है

शहर-ए-जाँ में वबाओं का इक दौर था मैं अदा-ए-तनफ़्फ़ुस में कमज़ोर था

ज़िंदगी फिर मिरी यूँ बचाई गई मेरी शह-रग हटा दी गई या अख़ी

वो नशा है के ज़बाँ अक़्ल से करती है फ़रेब

तू मिरी बात के मफ़्हूम पे जाता है कहाँ

तमाम होश ज़ब्त इल्म मस्लहत के बा'द भी

फिर इक ख़ता मैं कर गया था मा'ज़रत के बा'द भी

मकीन-ए-दिल को ख़ानुमा-ख़राबियों से इश्क़ था

क़याम ढूँढता रहा तुम्हारी छत के बा'द भी

तिरे लबों में मिरे यार ज़ाइक़ा नहीं है

हज़ार बोसे हैं उन पर इक दुआ नहीं है

तमाम फ़र्क़ मोहब्बत में एक बात के हैं

वो अपनी ज़ात का नईं है हम उस की ज़ात के हैं

आँसुओं में मिरे काँधे को डुबोने वाले

पूछ तो ले कि मिरे जिस्म का सहरा है कहाँ

हमारा काम तो मौसम का ध्यान करना है

और उस के बा'द के सब काम शश-जहात के हैं

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