सालिम सलीम
ग़ज़ल 97
नज़्म 1
अशआर 54
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए
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चटख़ के टूट गई है तो बन गई आवाज़
जो मेरे सीने में इक रोज़ ख़ामुशी हुई थी
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मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है
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नअत 1
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