aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
क़द्र बिलग्रामी, सय्यद ग़ुलाम हसनैन (1833-1884) क़द्र की सारी ज़िंदगी भाग-दौड़ में गुज़री। आबाई क़स्बे बिलगराम (फ़र्रुख़ाबाद) में शुरूआ’ती ता’लीम के बा’द लखनऊ जा पहुँचे जहाँ शेख़ अमान अ’ली के शागिर्द हुए। लखनऊ की तबाही के बा’द इधर उधर भटकते देहली पहुँचे जहाँ मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्दी में आए। फिर उस्ताद के भतीजे मिर्ज़ा अब्बास बेग की सिफ़ारिश पर हरदोई के एक स्कूल में फ़ारसी के उस्ताद मुक़र्रर हुए। बा’द में उन्हीं की सिफ़ारिश पर केनिंग कालेज लखनऊ में पढ़ाने लगे। 1884 में निज़ाम हैदराबाद उन्हें 400 रूपए माहाना की तन्ख़्वाह पर हैदराबाद ले गए, मगर वहाँ जाते ही बीमार पड़ गए और लखनऊ आ कर आख़िरी साँस ली।
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