aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
کرشن چندر کے افسانوں کا مرکزی خیال اور بنیادی نکتہ عام انسانی زندگی یا انسانی زندگی کے عام مسائل ہیں۔ تقریباً ان کے موضوعات کا محور یہی ہے۔ ان کی ترقی پسندی کا نظریہ انسانی عظمت ووقار پر ہی جا کر ٹھہرتا ہے۔ اس لئے وہ ہر انسان سے ترقی پسند ہونے کا ہی تقاضا کرتے ہیں۔ ان کے افسانوی مجموعے کا مزکزی خیال یہی ہے۔ چونکہ حقیقت کو پیش کرنا وہ اپنا فرض اولین سمجھتے ہیں خواہ وہ کتنی بھی تلخ کیوں نہ ہو شاید یہی وجہ ہے کہ ان کے نزدیک عام لوگ جسے عینک کہتے ہیں وہ ان کی نظر میں آتے آتے وہ کانچ کے ٹکڑوں میں بدل جاتے ہیں جو بس کمانی میں پھنسا دیے گئے ہیں۔ ان کا یہ مجموعہ حقیقی واقعات کو تخیل میں لپیٹ کر کبھی افسانے تو کبھی طنز کے سانچے میں ڈھالے جانے کا بالکل نیا تجربہ تھا۔
एक नए स्कूल का संस्थापक अफ़साना निगार
“सच्ची बात ये है कि कृश्न चंदर की नस्र पर मुझे रश्क आता है। वो बेईमान शायर है जो अफ़साना निगार का रूप धार के आता है और बड़ी बड़ी महफ़िलों और मुशायरों में हम सब तरक़्क़ी पसंद शायरों को शर्मिंदा कर के चला जाता है। वो अपने एक एक जुमले और फ़िक़रे पर ग़ज़ल के अश्आर की तरह दाद लेता है और मैं दिल ही दिल में ख़ुश होता हूँ कि अच्छा हुआ इस ज़ालिम को मिस्रा मौज़ूं करने का सलीक़ा न आया वर्ना किसी शायर को पनपने न देता।”
अली सरदार जाफ़री
कृश्न चंदर उर्दू फ़िक्शन की वो क़द्दावर शख़्सियत हैं जिनकी कला में विविधता, रंगारंगी, ताज़गी, रूमानियत, वास्तविकता, विद्रोह, हास्य और व्यंग्य सभी कुछ शामिल है जबकि रूमानी यथार्थवाद उनकी विशिष्टता है। कृश्न चंदर ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से प्रगतिशील साहित्य का नेतृत्व किया और उसे विश्व मंच तक पहुंचा दिया। उन्होंने दर्जनों उपन्यास और 500 से अधिक कहानियां लिखीं। उनकी रचनाओं के अनुवाद दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में हो चुके हैं। कृश्न चंदर के पास एक शायर का दिल और एक चित्रकार का क़लम है। उनके विषय हिन्दुस्तानी ज़िंदगी और उसके मसाइल के आसपास घूमते हैँ। उर्दू अफ़सानों में रूप के संदर्भ में कृश्न चंदर ने नित नए प्रयोग किए हैँ। उन्होंने अफ़साना और स्केच के संयोजन से उर्दू अफ़साना निगारी में एक नई तरह डाली और उसे अपनी अनूठी शैली के द्वारा अफ़साना निगारी में एक नए स्कूल की स्थापना की। कहानियों और उपन्यासों के अतिरिक्त उन्होंने रेखाचित्र, निबंध, टिप्पणियां और रिपोर्ताज़ भी लिखे जिन सब पर उनकी विशेष छाप मौजूद है।
कृश्न चंदर 23 नवंबर 1914 को राजस्थान के शहर भरतपुर में पैदा हुए, जहां उनके पिता गौरी शंकर चोपड़ा मेडिकल अफ़सर थे। बाद में उन्होंने उस वक़्त की रियासत पुंछ में नौकरी कर ली थी। कृश्न चंदर का बचपन वहीं गुज़रा। कृश्न चंदर ने तहसील महेंद्रगढ़ में आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। उर्दू उन्होंने पांचवीं जमात से पढ़नी शुरू की और आठवीं जमात में ऐच्छिक विषय फ़ारसी ले लिया। फ़ारसी के उस्ताद बुलाकी राम नंदा उनकी बहुत पिटाई करते थे। कृश्न चंदर ने उन पर एक लेख “मिस्टर ब्लैकी” लिख कर दीवान सिंह मफ़्तूं के अख़बार “रियासत” में भेज दिया जो प्रकाशित भी हो गया। उस लेख की इलाक़े में बहुत शोहरत हुई और लोगों ने उसे मज़े ले-ले कर पढ़ा लेकिन पिता से डाँट मिली। कृश्न चंदर ने मैट्रिक का इम्तिहान सेकंड डिवीज़न में विक्टोरिया हाई स्कूल से पास किया। जिसके बाद उन्होंने लाहौर के फ़ारमन क्रिस्चियन कॉलेज में दाख़िला ले लिया। उसी ज़माने में उनकी मुलाक़ात भगत सिंह के साथियों से हुई और वो क्रांतिकारी सरगर्मीयों में हिस्सा लेने लगे। उन्हें गिरफ़्तार करके दो माह लाहौर के क़िला में नज़रबंद भी रखा गया। एफ़.ए में वो फ़ेल हो गए तो शर्म की वजह से घर से भाग कर कलकत्ता चले गए लेकिन जब मालूम हुआ कि उनकी माता उनके लापता हो जाने से बीमार हो गई हैं तो वापस आ गए। उसके बाद उन्होंने संजीदगी से शिक्षा जारी रखी और अंग्रेज़ी में एम.ए और फिर एल.एलबी. किया। एल.एलबी. उन्होंने माता-पिता के दबाव में किया था और उनका वकालत करने का कोई इरादा नहीं था। उनकी दिलचस्पी साहित्य में थी और उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं के लिए लिखना शुरू कर दिया था और साहित्य मंडलियों में उनकी शनाख़्त बनने लगी थी। उस ज़माने में उनकी कहानियों के कई संग्रह, “ख़्याल”, “नज़्ज़ारे” और “नग़मे की मौत” प्रकाशित हो चुके थे जिन्हें सराहा गया था। उनका पहला उपन्यास “शिकस्त” 1943 में प्रकाशित हुआ था।
कृश्न चंदर शुरू से ही प्रगतिशील आंदोलन से संबद्ध हो गए थे और 1938 में कलकत्ता में आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मलेन में उन्होंने सूबा पंजाब के प्रतिनिधि की हैसियत से शिरकत की थी। यहीं उनका परिचय सज्जाद ज़हीर और प्रोफ़ेसर अहमद अली आदि से हुआ और उन्हेँ प्रगतिशील लेखक संघ सूबा पंजाब का सेक्रेटरी निर्धारित कर दिया गया। 1939 में अहमद शाह बुख़ारी (पतरस) ने, जो ऑल इंडिया रेडियो के उपनिदेशक थे, उन्हेँ ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में प्रोग्राम अस्सिटेंट की नौकरी दे दी। उन्होंने तीन साल तक लाहौर, दिल्ली और लखनऊ में प्रोग्राम अस्सिटेंट के रूप में काम किया। उस समय दिल्ली के रेडियो स्टेशन पर सआदत हसन मंटो भी थे, जिन्होंने उनको शराब की लत लगाई। उसी ज़माने में उनकी मां ने उनकी शादी विद्यावती से कर दी। उनकी बीवी मामूली शक्ल-ओ-सूरत की और तेज़ मिज़ाज की थीं जिनके साथ वो ख़ुश नहीँ थे। उन्होंने बहरहाल उनके तीन बच्चोँ को जन्म दिया।
कृश्न चंदर रेडियो की नौकरी से संतुष्ट नहीँ थे। इत्तफ़ाक़ से उसी ज़माने में पुणे की शालीमार फ़िल्म कंपनी के प्रोड्यूसर/डायरेक्टर ज़ेड अहमद ने उनका एक अफ़साना पढ़ा और उन्हेँ टेलीफ़ोन करके अपनी फ़िल्म कंपनी में संवाद लिखने का निमंत्रण दिया। कृश्न चंदर ने रेडियो की नौकरी छोड़ दी और पुणे रवाना हो गए। पुणे का ज़माना कृश्न चंदर की ज़िंदगी का यादगार और रंगीन ज़माना था। यहाँ उन्होंने हर तरह के ऐश किए। वो ख़ूबसूरत हीरो-हीरोइनों से मिले और उनका सामिप्य प्राप्त किया। रचनात्मक रूप से भी यह उनका अच्छा दौर था जिसमेँ उन्होंने “अन्नदाता” और “मोबी” जैसी कहानियाँ लिखीं। पुणे मेँ उन्होंने कई इश्क़ किए। उनकी महबूबाओं में एक लड़की समीना थी जो ज़्यादा हसीन नहीँ लेकिन बला की ज़हीन और फ़िक्रेबाज़ थी। कृश्न चंदर उस पर आसक्त हो गए, यहाँ तक कि वो उनकी कमज़ोरी बन गई। बाद में उस लड़की को उन्होंने अपनी एक फ़िल्म में साइड हीरोइन का रोल भी दिया। उनकी दूसरी मुहब्बत उस दौर की मशहूर शायरा शाहिदा निकहत से हुई जो अपने जादूई तरन्नुम और हुस्न-ओ-जमाल के सबब मुशायरों की जान हुआ करती थी लेकिन उसके चाहने वाले बहुत थे। कृश्न चंदर को ये बात पसंद नहीँ थी। नतीजा ये हुआ कि ये इश्क़ छ: माह में दम तोड़ गया। उसके बाद वो मशहूर अदीब और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दीक़ी की साहबज़ादी पर मर मिटे जो शादीशुदा और एक बच्चे की मां थीं। उनसे शादी में बहुत सी कठिनाइयां थीं लेकिन सलमा भी उनके इश्क़ में गिरफ़्तार हो गईँ और शौहर से तलाक़ लेकर कृश्न चंदर की अर्धांगिनी बन गईं। सलमा के साथ उनकी ज़िंदगी बहुत ख़ुशगवार गुज़री।
कृश्न चंदर 1946 में पुणे से बंबई चले गए जहां उनको बंबई टॉकीज़ में डेढ़ हज़ार रुपये मासिक पर नौकरी मिल गई। उस कंपनी में एक साल काम करने के बाद वो नौकरी छोड़कर फिल्मोँ के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर बन गए। उनकी पहली फ़िल्म “सराय के बाहर” उनके एक रेडियो नाटक पर आधारित थी। उसमें उनके भाई महेन्द्र नाथ हीरो थे। फ़िल्म बुरी तरह नाकाम हुई, उसके बाद उन्होंने फ़िल्म राख बनाई जो डब्बे में ही बंद रह गई और कभी रीलीज़ नहीँ हुई। फिल्मों की नाकामी के नतीजे में कृश्न चंदर अर्श से फ़र्श पर आ गए। सर पर भारी क़र्ज़ का बोझ था जिसकी अदाइगी की कोई सूरत नज़र नहीँ आ रही थी। उन्होंने अपनी कारें बेच दीं, नौकरों को हटा दिया और बंबई में क़दम जमाए रखने के लिए नए सिरे से संघर्ष शुरू किया। कृश्न चंदर ने लगभग दो दर्जन फिल्मोँ के लिए कहानी, संवाद लिखे, उनमें कुछ फिल्में चलीं भी लेकिन एक फ़िल्म लेखक के रूप में वो फिल्मों में कोई ऊंचा स्थान नहीँ पा सके।
1966 में कृश्न चंदर को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से नवाज़ा गया जिसके साथ पंद्रह दिन के लिए सोवियत यूनियन के दौरे का आमंत्रण भी था। कृश्न चंदर ने सलमा सिद्दीक़ी के साथ रूस का दौरा किया जहां उनका पुरजोश स्वागत किया गया। रूसी नौजवान लड़के और लड़कियां अनुवाद के द्वारा उनके लेखन से परिचित और उनके प्रशंसक थे। 1973 में फ़िल्म्स डिवीज़न ने उनकी क़द्दावर और आलमगीर शख़्सियत के पेश-ए-नज़र उनकी ज़िंदगी पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया और ये काम उनके भाई महेन्द्र नाथ के सुपुर्द किया गया। फ़िल्म की शूटिंग बंबई, पुणे और कश्मीर मेँ हुई। 1969 में उनको पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 31 मई 2017 को उनकी याद में डाक-तार विभाग ने दस रुपये का डाक टिकट जारी किया। उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार कभी नहीं मिला।
कृश्न चंदर दिल के मरीज़ थे। उनको 1967،1969 और 1976 में दिल के दौरे पड़े थे लेकिन बच गए थे। 5 मार्च 1977 को उनको एक-बार फिर दिल का दौरा पड़ा और वो 8 मार्च को चल बसे।
पाठकों की संख्या के अनुसार कृश्न चंदर से ज़्यादा कामयाब अफ़साना निगार कोई नहीँ। उनके अफ़सानों में रूमान और यथार्थ का जो संयोजन मिलता है वो हिंदुस्तानियों के स्वभाव के अनुकूल है। ये हक़ीक़त है कि हिन्दुस्तानी स्वभावतः कल्पनाशील और रूमानी हैँ लेकिन वक़्त और हालात के तक़ाज़ों ने उन्हें यथार्थवादी भी बना दिया है। कृश्न चंदर के अफ़साने इन दोनोँ मांगों को पूरा करते हैँ। वो अपने व्यक्तिवाद के साथ सामूहिकता को भी नहीँ भूलते। वो जब अपनी बात करते हैँ तो महसूस होता है कि उसके पर्दे में सारे समाज की बात कर रहे हैँ। उनकी आप बीती में जग-बीती का अंदाज़ है और यही उनकी कामयाबी का राज़ है। कृश्न चंदर को जन्नत और जहन्नुम को यकजा करने का हुनर आता है। वो रोशन दिमाग़ और उदार हैं और उन्होंने अपने फ़न को भी इन ही ख़ूबियों से मालामाल कर दिया है।