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लेखक: परिचय

तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़ल की आबरू

“अगर बीसवीं सदी में पैदा होने वाले तमाम शायरों के कलाम से सौ बेहतरीन ग़ज़लें चुनी जाएं तो उसमें मजरूह की कई ग़ज़लें आ जाएँगी और फिर सबसे अहम बात ये है कि अगर ऐसे अशआर को एकत्र किया जाए जो इस वक़्त बाज़ौक़ लोगों की ज़बान पर चढ़े हुए हैं तो उनमें मजरूह के शे’रों की संख्या अपने समकालीनों में सबसे ज़्यादा होगी।” वारिस किरमानी

मजरूह सुलतानपुरी ने बीसवीं सदी के चौथे और पांचवें दशक में ग़ज़ल की क्लासिकी परंपरा में राजनीतिक प्रतीक बना कर साबित किया कि ग़ज़ल की विधा अपने तग़ज़्ज़ुल को त्याग किए बिना भी हर तरह के विषयों, भावनाओं, संवेदनाओं और विचारों को प्रभावी और रोचक ढंग से व्यक्त करने की क्षमता रखती है। मजरूह ने क्लासिकी ग़ज़ल की प्रतीकों और रूपकों में हल्की सी तबदीलियां करते हुए एक नई आध्यात्मिक और शाब्दिक दुनिया बसाई और राजनीतिक रहस्यवाद में डूबी हुई, आधुनिक ग़ज़ल को आधुनिक वास्तविकताओं की मूर्ति बना दिया। मजरूह की ग़ज़लों में सूफियाना शायरी के अनगिनत रूपक मिलते हैं जो उनकी कलात्मकता की बदौलत पाठकों के लिए जीवंत प्रतीकों का रूप लेते हैं। वह नए युग की वास्तविकताओं की व्याख्या के लिए पारंपरिक भाषाई प्रणाली का उपयोग कुछ इस तरह से करते हैं कि ऐसा मालूम होता है कि उनकी शायरी के रूप में जो कुछ प्रगट हुआ है उसने क्लासिकी शायरी की, प्रगतिशील साहित्य में, पुनरुत्थान का काम किया है। उन्होंने प्रगतिवाद के शिखर के दौर में, जब नज़्म के मुक़ाबले में ग़ज़ल को निम्न श्रेणी की चीज़ समझा जाता था बल्कि उसके विरुद्ध मुहिम भी चल रही थी, ग़ज़ल की आबरू को सलामत रखा। उन्होंने ग़ज़ल को उसकी तमाम नज़ाकत, हुस्न और बांकपन के साथ ज़िंदा रखा और अपने काव्य संग्रह को भी “ग़ज़ल” का नाम दिया। उनकी ग़ज़लें अपनी मिसाल आप हैं जिनमें ज़बान-ओ-बयान की उम्दगी के साथ अपने युग और उसके दर्द को बयान किया गया है। उनका कहने का ढंग इतना प्रभावी है कि दिल में घर किए बिना नहीं रहता। प्रगतिवादियों ने उनकी ग़ज़लगोई को हर तरह से हतोत्साहित किया और उनको महज़ शिष्टाचारवश अपने साथ लगाए रहे और ख़ुद उन्हें भी प्रगतिवादियों में ख़ुद को शामिल रखने के लिए ऐसे शे’र भी कहने पड़े जिनके लिए वो बाद में शर्मिंदा रहे। मजरूह को इस बात का दुख रहा कि उनके ऐसे ही चंद अशआर को उछाल कर कुछ लोग उनकी तमाम शायरी की ख़ूबियों को पीछे डालने की कोशिश करते हैं। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर पर उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उन्होंने बहुत कम कहा लेकिन जो कुछ कहा वो लाजवाब है। उनके बेशुमार शे’र ख़ास-ओ-आम की ज़बान पर हैं।

मजरूह सुलतानपुरी 1919 में उत्तर प्रदेश के ज़िला सुलतानपुर में पैदा हुए। उनका असल नाम इसरार हसन ख़ान था। उनके वालिद मुहम्मद हसन ख़ान पुलिस में मुलाज़िम थे और मजरूह उनकी इकलौती औलाद थे। मुहम्मद हसन ख़ान ने ख़िलाफ़त आंदोलन के प्रभाव के कारण बेटे को अंग्रेज़ी शिक्षा नहीं दिलाई और उनका दाख़िला एक मदरसे में करा दिया गया जहां उन्होंने उर्दू के अलावा अरबी और फ़ारसी पढ़ी। मदरसे का माहौल सख़्त था जिसकी वजह से मजरूह को मदरसा छोड़ना पड़ा और 1933 में उन्होंने लखनऊ के तिब्ब्या कॉलेज में दाख़िला लेकर हकीम की सनद हासिल की। हिक्मत की तालीम से फ़ारिग़ हो कर मजरूह ने फैज़ाबाद के क़स्बा टांडा में औषधालय खोला लेकिन उनकी हिक्मत कामयाब नहीं हुई। उसी ज़माने में उनको वहां की एक लड़की से इश्क़ हो गया और जब बात रुस्वाई तक पहुंची तो उनको टांडा छोड़कर सुलतान पुर वापस आना पड़ा। तिब्बिया कॉलेज में शिक्षा के दिनों में उन्हें संगीत से भी दिलचस्पी पैदा हुई थी और उन्होंने म्यूज़िक कॉलेज में दाख़िला भी ले लिया था लेकिन जब ये बात उनके वालिद को मालूम हुई तो वह नाराज़ हुए और मजरूह को म्यूज़िक सीखने से मना कर दिया। इस तरह उनका ये शौक़ पूरा नहीं हो सका। मजरूह ने 1935 में शायरी शुरू की और अपनी पहली ग़ज़ल सुलतानपुर के एक मुशायरे में पढ़ी। उनका तरन्नुम ग़ज़ब का था। उनकी ज़ेहनी तर्बीयत में जिगर मुरादाबादी और प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दीक़ी का बड़ा हाथ रहा। रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने उन्हें फ़ारसी और उर्दू की क्लासिकी शायरी के अध्ययन की सलाह दी। अलीगढ़ में उनको दाख़िला नहीं मिल सकता था इसलिए रशीद साहिब ने उनको तीन साल तक अपने घर पर रखा। दूसरी तरफ़ जिगर साहिब उभरते हुए अच्छे गले वाले शायरों को हर तरह प्रोमोट करते थे। ख़ुमार बारहबंकवी, राज़ मुरादाबादी और शमीम जयपुरी सब उनके ही हाशिया बर्दारों में थे। जिगर साहिब मजरूह को भी अपने साथ मुशायरों में ले जाने लगे। ऐसे ही एक मुशायरे में वो मजरूह को लेकर बंबई पहुंचे तो श्रोताओं में उस वक़्त के मशहूर फ़िल्म डायरेक्टर ए.आर कारदार भी थे। वो मजरूह की शायरी से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें बहुत बड़ी तनख़्वाह पर अपनी फिल्मों के गीत लिखने के लिए मुलाज़िम रख लिया। उस वक़्त वो फ़िल्म “शाहजहाँ” बना रहे थे जिसके संगीतकार नौशाद और हीरो के.एल. सहगल थे जो फिल्मों में अपनी आवाज़ में गाया करते थे। उस फ़िल्म का मजरूह का लिखा हुआ और सहगल का गाया हुआ गाना “हम जी के क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया” अमर हो गया। सहगल की वसीयत थी कि उनके मरने पर ये गाना उनकी अर्थी के साथ बजाया जाए। मजरूह ने अपनी लगभग 55 साल की फ़िल्मी ज़िंदगी में बेशुमार गाने लिखे जिनमें से अधिकतर हिट हुए। उनकी कोशिश होती थी कि फ़िल्मी गानों में भी वो जहां तक संभव हो साहित्यिकता को बरक़रार रखें और जब कभी उनको प्रोड्यूसर या डायरेक्टर के आग्रह के सामने अदब से समझौता करना पड़ता था तो अंदर ही अंदर घुटते थे। लेकिन वो अपने पेशे में पूरी तरह प्रोफ़ेशनल थे और अनावश्यक नाज़ नख़रे नहीं करते थे।1965 में उन्हें फ़िल्म ‘दोस्ती’ के गाने “चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे...” के लिए बेहतरीन गीतकार का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड दिया गया, फिर 1993 में उनको फ़िल्मी दुनिया के सबसे बड़े अवार्ड “दादा साहब फाल्के” से नवाज़ा गया। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उनको ग़ालिब इनाम और “इक़बाल समान” से भी नवाज़ा गया। अदबी और फ़िल्मी सरगर्मीयों के सिलसिले में उन्होंने रूस, अमेरीका, बर्तानिया और खाड़ी देशों सहित दर्जनों मुल्कों के दौरे किए। बुढ़ापे में वो फेफड़े की बीमारी में मुब्तला थे। 24 मई 2000 को बंबई के लीलावती अस्पताल में उनका देहांत हो गया।

जगन्नाथ आज़ाद के शब्दों में मजरूह की शायरी विचारों और भावनाओं का सामंजस्य है जिसमें ज़िंदगी के कई रंग झलकते हैं। मजरूह की इंसान की महानता में अटूट आस्था ज़िंदगी की ठोस हक़ीक़तों पर आधारित है। परंपरा और परंपरा के विस्तार का सम्मान मजरूह के कलाम की विशेषता है। इसमें मूर्ति कला के चित्र जगह जगह वृद्धि करते चले जाते हैं। मुशफ़िक़ ख़्वाजा का कहना है कि जदीद उर्दू ग़ज़ल की तारीख़ में मजरूह सुलतानपुरी की हैसियत एक रुजहान साज़ ग़ज़लगो की है। उन्होंने ग़ज़ल के क्लासिकी स्वरूप को बरक़रार रखते हुए उसे जिस तरह अपने युग की समस्याओं का आईनादार बनाया वो कुछ उन्हीं का हिस्सा है। पुरानी और नई ग़ज़ल के बीच फ़र्क करने के लिए अगर किसी एक ग़ज़ल संग्रह को चिन्हित किया जाए तो वो मजरूह सुलतानपुरी का काव्य संग्रह “ग़ज़ल” होगा।

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