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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : हसरत मोहानी

V4EBook_EditionNumber : 001

प्रकाशक : फ़रीद बुक डिपो (प्राइवेट) लिमिटेड, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 2004

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : व्याख्या

पृष्ठ : 295

सहयोगी : रेख़्ता

sharh-e-deewan-e-ghalib
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पुस्तक: परिचय

غالب کی اہمیت اردو زبان میں وہی ہے جو حافظ شیرازی کی فارسی زبان میں۔ جس طرح سے حافظ شیرازی فارسی غزلیات کا سب سے بڑا شاعر ہے اسی طرح غالب اردو غزلیات کا امام ہے بلکہ غالب کی نثر کو اگر شامل کر لیا جائے تو شاید حافظ سے چند گام آگے نکل جائے۔ اردو زبان میں سب سے زیادہ پڑھا اور سمجھا جانے والا شاعر غالب ہی ہے اور اسی کو سب سے زیادہ سمجھایا گیا ہے۔ وہی سب سے زیادہ چھاپا گیا ہے۔ غالب کو اگرچہ اپنی فارسی دانی پر ناز تھا مگر شہرت انہیں ان کی اردو شاعری کی وجہ سے ملی جسے وہ "بے رنگ من "کہہ کر پکارتے تھے۔ زیر نظر کتاب دیوان غالب کی شرح ہے جو ردیف کے حساب سے مشرح کی گئی ہے۔ جس میں وہ سب سے پہلے شعر نقل کرتے ہیں پھر اس شعر کے مشکل الفاظ کی گرہ کھولتے ہیں پھر مضمون کی عقدہ کشائی کرتے ہیں اور شعر کے ہر ہر پہلو پر بات کرتے ہیں۔ اس لئے دیوان غالب کو سمجھنے کے لئے یہ ایک بہترین شرح ہے جو اردو کے شائقین اور غالب کے پڑھنے والوں کے لئے ایک بیش بہا تحفہ ہے۔ خیال رہے کہ کلام غالب کی مقبولیت کے پیش نظر کئی لوگوں نے ان کلام کی شرح کی ہے، زیر نظر شرح کو حسرت موہانی نے انجام دیا ہے، جس کو ایک معتبر شرح سمجھا جاتا ہے۔

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लेखक: परिचय

अगर किसी एक शख़्स में एक बलंद पाया शायर, एक महान मगर नाकाम सियासतदां, एक सूफ़ी, दरवेश और योद्धा, एक पत्रकार, आलोचक, और शोधकर्ता और एक कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, कम्युनिस्ट और जमईयत उलमा की बहुत सी शख़्सियतें एक साथ जमा हो सकती हैं तो उसका नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन हसरत मोहानी होगा। हसरत मोहानी अगर उर्दू ग़ज़ल का एक बड़ा नाम हैं तो ये वही थे जिन्होंने मुल्क को इन्क़लाब ज़िंदाबाद का नारा दिया, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गोरिला जंग की वकालत की, महात्मा गांधी को स्वदेशी आंदोलन की राह सुझाई, सबसे पहले हिंदुस्तान की मुकम्मल आज़ादी की मांग की, देश विभाजन का विरोध किया, संविधान निर्माण असैंबली और पार्लियामेंट के सदस्य होते हुए, घर में सिले, बग़ैर इस्त्री के कपड़े पहने, ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर यक्का पर सफ़र किया, छोटे से मकान में रहते हुए घर का सौदा सामान ख़रीदा और पानी भरा और ये सब तब था जबकि उनका सम्बंध एक जागीरदाराना घराने से था। सियासत को न वो रास आए न सियासत उनको रास आई। उनकी मौत के साथ उनका सियासी संघर्ष मात्र इतिहास का हिस्सा बन गया लेकिन शायरी उनको आज भी पहले की तरह ज़िंदा रखे हुए है।

हसरत मोहानी लखनऊ के क़रीब उन्नाव के क़स्बा मोहान में 1881 में पैदा हुए। वालिद अज़हर हुसैन एक जागीरदार थे और फ़तहपुर में रहते थे। हसरत का बचपन ननिहाल में गुज़रा, आरम्भिक शिक्षा घर में हासिल करने के बाद मिडल स्कूल के इम्तिहान में सारे प्रदेश में अव़्वल आए और वज़ीफ़ा के हक़दार बने, फिर एंट्रेंस का इम्तिहान फ़तहपुर से फ़र्स्ट डिवीज़न में पास किया, जिसके बाद वो अलीगढ़ चले गए जहां उनकी ज़िंदगी बिल्कुल बदल गई। कहते हैं कि अवध की तहज़ीब के परवर्दा हसरत अलीगढ़ पहुंचे तो इस शान से कि एक हाथ में पानदान था, जिस्म पर नफ़ीस अँगरखा और पावं में पुराने ढंग के जूते... जाते ही, "ख़ाला अम्मां” का ख़िताब मिल गया और सज्जाद हैदर यल्दरम ने उन पर एक नज़्म "मिर्ज़ा फोया” लिखी। लेकिन जल्द ही वो अपनी असाधारण योग्यताओं के आधार पर अलीगढ़ के साहित्यिक संगठनों में लोकप्रिय हो गए। साथ ही अपने इन्क़लाबी विचारधारा की वजह से उस वक़्त के अंग्रेज़ दोस्त कॉलेज अधिकारियों के लिए समस्या भी बन गए। उस वक़्त हसरत के दिन-रात ये थे कि शे’र-ओ-सुख़न की महफ़िलें गर्म रहतीं, यूनीयन हाल में तक़रीरें होतीं और सियासी हालात पर बहसें की जातीं। सज्जाद हैदर यल्दरम, मौलाना शौकत अली, क़ाज़ी तलम्मुज़ हुसैन और अबु मुहम्मद, उनके साथियों में से थे। 1902 में कॉलेज के जलसे में हसरत ने अपनी मसनवी “मुशायरा शोरा-ए-क़दीम दर आलम-ए-ख़याल” सुनाई जिसे बहुत पसंद किया गया। उस जलसे में फ़ानी बदायुनी, मीर मेहदी मजरूह, अमीर उल्लाह तस्लीम जैसी शख़्सियतें मौजूद थीं। उसी ज़माने में हसरत ने कॉलेज में एक मुशायरे का आयोजन किया जिसमें कुछ शे’र ऐसे पढ़े गए जिन पर अश्लील होने का इल्ज़ाम लगाया गया हालाँकि वैसे शे’रों से उर्दू शोरा के दीवान भरे पड़े हैं। बात इतनी थी कि हसरत की सरगर्मीयों की वजह से कॉलेज का प्रिंसिपल उनसे जला बैठा था और उसे हसरत के ख़िलाफ़ कार्रवाई का बहाना मिल गया। उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया, अलबत्ता इम्तिहान में शिरकत की इजाज़त दी गई। हसरत ने बी.ए. पास करने के बाद, बड़ी सरकारी नौकरी हासिल करने की बजाए खु़द को देश और समाज की ख़िदमत और शायरी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने अलीगढ़ से ही साहित्यिक व राजनीतिक पत्रिका “उर्दू-ए-मुअल्ला” जारी किया। इसी दौरान में उन्होंने पुराने उर्दू शायरों के दीवान तलाश कर के उन्हें संपादित और प्रकाशित किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो कर आज़ादी की जंग में कूद पड़े। सियासी तौर पर वो कांग्रेस के “गर्म दल” से सम्बंध रखते थे और बाल गंगाधर उनके नेता थे। वो मोती लाल नहरू और गोखले जैसे “नर्म दल” के लीडरों की नुक्ताचीनी करते थे। 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर कांग्रेस से अलग हुए तो वो भी उनके साथ अलग हो गए। वो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गोरिला जंग के समर्थक थे। हिन्दोस्तान की जंग-ए-आज़ादी का “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” का नारा देने वाले हसरत ही थे। उर्दू-ए-मुअल्ला में आज़ादी पसंदों के आलेख बराबर छपते थे और दूसरे देशों में भी अंग्रेज़ों की नीतियों का पर्दा फ़ाश किया जाता था। 1908 में ऐसे ही एक लेख के लिए उन पर मुक़द्दमा क़ायम किया गया और 2 साल क़ैद बा मशक़्क़त की सज़ा हुई जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था। उसी क़ैद में उन्होंने अपना मशहूर शे’र कहा था... 
“है मश्क़-ए-सुख़न जारी,चक्की की मशक़्क़त भी 
इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी।”
 
उस क़ैद ने हसरत के सियासी ख़्यालात में और भी शिद्दत पैदा कर दी, 1921 के कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में उन्होंने मुकम्मल आज़ादी की मांग की जिसको उस वक़्त के कांग्रेसी नेताओं ने समय पूर्व कहते हुए मंज़ूर नहीं किया। हसरत को 1914 और 1922 में भी गिरफ़्तार किया गया। 1925 से उनका झुकाव कम्यूनिज़्म की तरफ़ हो गया,1926  में उन्होंने कानपुर में पहली कम्युनिस्ट कांफ्रेंस का स्वागत भाषण पढ़ा जिसमें पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक काश्तकारों और मज़दूरों के कल्याण और भलाई पर ज़ोर दिया। उससे पहले वो मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन की भी अध्यक्षता कर चुके थे और मुस्लिम लीग के टिकट पर ही विधानसभा के लिए चुने गए थे। वो जमीअत उल्मा के संस्थापकों में से थे। जब हसरत ने स्वदेशी आंदोलन अपनाया तो शिबली नोमानी ने उनसे कहा, “तुम आदमी हो या जिन्न, पहले शायर थे, फिर पोलिटिशियन बन गए और अब बनिए भी हो गए!”
हसरत के व्यक्तित्व का दूसरा अहम पहलू उनकी शायरी है। हसरत की शायरी सर से पांव तक इश्क़ की शायरी है जो न तो ‘जुर्अत’ की तरह कभी तहज़ीब से गिरती है और न ‘मोमिन’ की तरह विरह व मिलन के झूलों में झूलती है। उनके इश्क़ में ज़बरदस्त एहतियात और रख-रखाव है जो एक तरफ़ उनको कभी कामयाब नहीं होने देता तो दूसरी तरफ़ उनको कामयाबी से बेपर्वा भी रखता है। यानी उनके इश्क़ का बुनियादी मक़सद महबूब को हासिल करना नहीं बल्कि उससे इश्क़ किए जाना है। उनका इश्क़ सरासर काल्पनिक है जिसे वो वास्तविक इश्क़ के साथ गडमड नहीं करते। वो अपने मा’शूक़ों की निशानदेही भी कर देते हैं। 

“रानाई में हिस्सा है जो क़बरस की परी का 
नज़्ज़ारा  है मस्हूर  उसी  जलवागरी  का
 
लारैब कि उस हुस्न-ए-सितमगार की सुर्ख़ी 
मूजिब है मिरे ज़ोह्द की इस्याँ नज़री का
 
साथ उनके जो बेरूत से हम आए थे ‘हसरत’ 
ये रोग नतीजा है उसी हमसफ़री का

“हम रात को इटली के हसीनों की कहानी
सुनते रहे रंगीनी-ए- ज़्होपा की ज़बानी 
आँखों का तबस्सुम था मिरे शौक़ का मूजिब
चितवन की शरारत थी मिरी दुश्मन-ए-जानी
इटली में तो क्या मैं तो ये कहता हूँ कि ‘हसरत’
दुनिया में न होगा कोई इस हुस्न का सानी।"

बहरहाल उनकी हसरतें हमेशा हसरत ही रहीं। वो ख़ुद हसरत मोहानी जो थे लेकिन ख़ास बात ये है कि इस सबके बावजूद ‘हसरत’ कभी मायूस और ग़मगीं नहीं होते। वो ज़िंदगी की संभावनाओं पर यक़ीन रखते हैं। उनको मुहब्बत के हर चरके में सँभाला देने वाली चीज़ ख़ुद मुहब्बत है... “क़ुव्वत-ए-इश्क़ भी क्या शय है कि हो कर मायूस
जब कभी गिरने लगा हूँ तो सँभाला है मुझे।” 

उनकी शायरी में एक तरह की शगुफ़्तगी, दिललगी और साहस है। सारा कलाम गेयता के नशे और मस्ती में डूबा हुआ है। यही वजह है कि उनका कलाम सादा होने के बावजूद बहुत प्रभावी है। वो मुहब्बत के नाज़ुक और कोमल भावनाओं और उनके उतार-चढ़ाव की तस्वीरें इस तरह खींचते हैं कि वो बिल्कुल सच्ची और जानदार मालूम होती हैं। 
हसरत का अध्ययन बहुत व्यापक था, उन्होंने असातिज़ा का कलाम बड़े ध्यान से पढ़ा था और उनसे फ़ायदा उठाने को वो छुपाते नहीं। 
“ग़ालिब-ओ-मुसहफ़ी-ओ-मीर-ओ-नसीम-ओ-मोमिन
तबा-ए-‘हसरत’ ने उठाया है हर उस्ताद से फ़ैज़ 

लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि उनका अपना कोई रंग नहीं बल्कि जिस तरह कोई मिश्रण अपने मूल तत्त्वों की विशेषताएं खो कर अपने व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ वुजूद में आता है उसी तरह हसरत का कलाम पढ़ते हुए ऐसा नहीं महसूस होता कि वो किसी की नक़ल है। फिर भी शायराना बल्कि यूं कहिए कि अपने आशिक़ाना मिज़ाज के लिहाज़ से अगर वो किसी शायर के क़रीब नज़र आते हैं तो वो ‘मोमिन’ हैं। उनका कहना था, "दर्द-ओ-तासीर के लिहाज़ से ‘मोमिन’ का कलाम ‘ग़ालिब’ से श्रेष्ठ और ‘ज़ौक़’ से श्रेष्ठतम है।”

हसरत का दूसरा अहम कारनामा ये है कि उन्होंने उर्दू-ए-मुअल्ला के ज़रिये बहुत से गुमनाम शायरों को परिचित कराया और शे’री अदब की आलोचना का ज़ौक़ आम हुआ। उन्होंने समकालीन शायरी का रिश्ता क्लासिकी अदब से जोड़ा। उनकी तीन पत्रिकाओं “मतरुकात-ए-  सुख़न", "मआइब-ए सुख़न” और “मुहासिन-ए-सुख़न” में शे’र की ख़ूबियों और ख़ामियों से बहस की गई है। हसरत एक ज़्यादा कहने वाले शायर थे। उन्होंने 13 दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद प्रस्तावना लिखी। उनके अशआर की तादाद तक़रीबन सात हज़ार है जिनमें से आधे से ज़्यादा क़ैद-ओ-बंद में लिखे गए। आज़ादी के बाद वो संसद सदस्य रहे लेकिन देश की सियासत से कभी संतुष्ट नहीं रहे। उनका देहांत 1951  में लखनऊ में हुआ और वहीं दफ़न किए गए।

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