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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

प्रकाशक : कबीर बुक डिपो, दिल्ली

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : काव्य संग्रह

पृष्ठ : 139

सहयोगी : मकतबा शाहराह, दिल्ली

ज़िंदाँ नामा
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पुस्तक: परिचय

فیض احمد فیض ایک عظیم شاعر اور کمیونزم فکر کے حامل تھے۔ زیر نظر شعری مجموعہ کو انہوں نے پاکستان کی جیل میں قید و بند کے دوران مکمل کیا تھا۔ بتایا جاتا ہے کہ ان کے ساتھیوں نے جیل کے حکام سے اجازت لے کر اس کی اشاعت کی خوشی میں ایک پارٹی بھی منائی تھی۔ اس کی بیشتر منظومات و غزل فیض نے سنٹرل جیل منٹگمری اور سنٹرل جیل لاہور میں قیام کے دوران میں لکھیں۔ اس میں سابق میجر محمد اسحاق کا دیباچہ انہتائی جامع، طویل اور تفصیلی ہے۔ انہوں نے اس دیباچے میں روداد قفس کو بالکل کھول کر رکھ دیا ہے۔ سید سجاد ظہیر کا مقدمہ بھی جامع ہے اور کتاب کے بارے میں بنیادی معمولات فراہم کرتا ہے۔ فیض کے اس مجموعے کو پڑھ کر محسوس ہوتا ہے کہ شاعر نے اپنے گردو پیش کے مشاہدات و مجاہدات کو کاغذ کے سپرد کرکے زنداں کا صحیح معنی بتا دیا ہے۔ ان اشعار میں درد و الم کا احساس ہے جس سے زندگی میں آزادی کی قدرو قیمت اور اس کی معنویت کا پتہ چلتا ہے۔

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लेखक: परिचय

शायरी के एक नए स्कूल के संस्थापक 
जिसने आधुनिक उर्दू शायरी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई 
फ़ैज़ की शायराना क़द्र-ओ-क़ीमत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनका नाम ग़ालिब और इक़बाल जैसे महान शायरों के साथ लिया जाता है। उनकी शायरी ने उनकी ज़िंदगी में ही सरहदों, ज़बानों, विचारधाराओं और मान्यताओं की  सीमाओं को तोड़ते हुए विश्व्यापी ख्याति प्राप्त कर ली थी। आधुनिक उर्दू शायरी की अंतर्राष्ट्रीय पहचान उन्ही के कारण है। उनकी आवाज़ दिल को छू लेने वाले इन्क़िलाबी गीतों, हुस्न-ओ-इशक़ के दिलनवाज़ गीतों,और उत्पीड़न व शोषण के ख़िलाफ़ विरोध के तरानों की शक्ल में अपने युग के इन्सान और उसके ज़मीर की प्रभावी आवाज़ बन कर उभरती है। संगीतात्मकता और आशावाद फ़ैज़ की शायरी के विशिष्ट तत्व हैं। ख़्वाबों और हक़ीक़तों,उम्मीदों और नामुरादियों की कशाकश ने उनकी शायरी में गहराई और तहदारी पैदा की है। उनका इशक़ दर्द-मंदी में ढल कर इन्सान दोस्ती की शक्ल इख़्तियार करता है और फिर ये इन्सान दोस्ती एक बेहतर दुनिया का ख़्वाब बन कर उभरती है। उनके शब्द और रूपक अछूते, आकर्षक और बहुमुखी हैं। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़ैज़ ने शायरी का एक नया स्कूल स्थापित किया।

अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए फ़ैज़ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितना सराहा और नवाज़ा गया उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती।1962 में सोवियत संघ ने उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जिसे तत्कालीन ध्रुवीय संसार में नोबेल पुरस्कार का विकल्प माना जाता था। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले उनका नामांकन नोबेल पुरस्कार के लिए किया गया था। 1976 में उनको अदब का लोटस इनाम दिया गया। 1990 में पाकिस्तान सरकार ने उनको देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “निशान-ए-इम्तियाज़” से नवाज़ा। फिर वर्ष 2011 को फ़ैज़ का वर्ष घोषित किया गया।
 
फ़ैज़ 13 फरवरी 1911 को पंजाब के ज़िला नारोवाल की एक छोटी सी बस्ती काला क़ादिर(अब फ़ैज़ नगर) के एक समृद्ध शिक्षित परिवार में पैदा हुए। उनके वालिद मुहम्मद सुलतान ख़ां बैरिस्टर थे। फ़ैज़ की आरंभिक शिक्षा पूरबी ढंग से शुरू हुई और उन्होंने क़ुरआन के दो पारे भी कंठस्थ (हिफ़्ज़) किए फिर अरबी-फ़ारसी के साथ अंग्रेज़ी शिक्षा पर भी तवज्जो दी गई। फ़ैज़ ने अरबी और अंग्रेज़ी में एम.ए की डिग्रियां हासिल कीं। गर्वनमेंट कॉलेज लाहौर में शिक्षा के दौरान फ़लसफ़ा और अंग्रेज़ी उनके विशेष विषय थे। उस कॉलेज में उनको अहमद शाह बुख़ारी “पतरस” और सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम जैसे उस्ताद और संरक्षक मिले। शिक्षा से निश्चिंत हो कर 1935 में फ़ैज़ ने अमृतसर के मोहमडन ओरिएंटल कॉलेज में बतौर लेक्चरर मुलाज़मत कर ली, यहां भी उन्हें अहम अदीबों और दानिशवरों की संगत मिली जिनमें मुहम्मद दीन तासीर, साहिबज़ादा महमूद उलज़फ़र और उनकी धर्मपत्नी रशीद जहां, सज्जाद ज़हीर और अहमद अली जैसे लोग शामिल थे। 1941 में फ़ैज़ ने एलिस कैथरीन जॉर्ज से शादी कर ली। ये तासीर की धर्मपत्नी की छोटी बहन थीं जो 16 साल की उम्र से बर्तानवी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध थीं। शादी के सादा समारोह का आयोजन श्रीनगर में तासीर के मकान पर किया गया था। निकाह शेख़ अब्दुल्लाह ने पढ़ाया। मजाज़ और जोश मलीहाबादी ने भी समारोह में शिरकत की।

1947 में फ़ैज़ ने मियां इफ़्तिख़ार उद्दीन के आग्रह पर उनके अख़बार “पाकिस्तान टाईम्स” में प्रधान संपादक के रूप में काम शुरू किया। वर्ष 1951 फ़ैज़ की ज़िंदगी में कठिनाइयों और शायरी में निखार का पैग़ाम लेकर आया। उनको हुकूमत का तख़्ता उलटने की साज़िश में, जिसे रावलपिंडी साज़िश केस कहते हैं, गिरफ़्तार कर लिया गया। बात इतनी थी कि लियाक़त अली ख़ां के अमरीका की तरफ़ झुकाओ और कश्मीर की प्राप्ति में उनकी नाकामी की वजह से फ़ौज के बहुत से अफ़सर उनसे नाराज़ थे जिनमें मेजर जनरल अकबर ख़ां भी शामिल थे। अकबर ख़ान फ़ौज में फ़ैज़ के उच्च अफ़सर थे। 23 फरवरी 1951 को अकबर ख़ान के मकान पर एक मीटिंग हुई जिसमें कई फ़ौजी अफ़सरों के साथ फ़ैज़ और सज्जाद ज़हीर ने भी शिरकत की। मीटिंग में हुकूमत का तख़्ता पलटने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया लेकिन उसे अव्यवहारिक कहते हुए रद्द कर दिया गया। लेकिन फ़ौजियों में से ही किसी ने हुकूमत को ख़ुश करने के लिए बात जनरल अय्यूब ख़ान तक पहुंचा दी। उसके बाद मीटिंग के शामिल होने वालों को बग़ावत के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया गया। लगभग पाँच साल उन्होंने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में गुज़ारे। आख़िर अप्रैल 1955 में उनकी सज़ा माफ़ हुई। रिहाई के बाद वो लंदन चले गए।1958 में फ़ैज़ पाकिस्तान वापस आए लेकिन जेलख़ाना एक बार फिर उनका इंतज़ार कर रहा था। सिकंदर मिर्ज़ा की हुकूमत ने कम्युनिस्ट साहित्य प्रकाशित करने और बांटने के इल्ज़ाम में उनको फिर गिरफ़्तार कर लिया। इस बार उनको अपने प्रशंसक ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की कोशिशों के नतीजे में 1960 में रिहाई मिली और वो पहले मास्को और फिर वहां से लंदन चले गए। 1962 में उनको लेनिन शांति पुरस्कार मिला।

लेनिन पुरस्कार मिलने के बाद फ़ैज़ की शोहरत,जो अभी तक हिन्दुस्तान और पाकिस्तान तक सीमित थी, सारी दुनिया विशेषरूप से सोवियत बलॉक के देशों तक फैल गई। उन्होंने बहुत से विदेशी दौरे किए और वहां लेक्चर दिए। उनकी शायरी के अनुवाद विभिन्न भाषाओं में होने लगे और उनकी शायरी पर शोध शुरू हो गया।1964 में फ़ैज़ पाकिस्तान वापस आए और कराची में मुक़ीम हो गए। उनको अबदुल्लाह हारून कॉलेज का डायरेक्टर नियुक्त किया गया, इसके अलावा भी ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने उनको ख़ूब ख़ूब नवाज़ा और कई अहम ओहदे दिए जिन में संस्कृति मंत्रालय के सलाहकार का पद भी शामिल था। 1977 में जनरल ज़िया-उल-हक़ ने भुट्टो का तख़्ता उल्टा तो फ़ैज़ के लिए पाकिस्तान में रहना नामुमकिन हो गया। उनकी सख़्त निगरानी की जा रही थी और कड़ा पहरा बिठा दिया गया था। एक दिन वो हाथ में सिगरेट थाम कर घर से यूं निकले जैसे चहलक़दमी के लिए जा रहे हों और सीधे बेरूत पहुंच गए। उस वक़्त फ़िलिस्तीनी संस्था की स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बेरूत में था और यासिर अरफ़ात से उनका याराना था, बेरूत में वो सोवियत सहायता प्राप्त पत्रिका “लोटस” के संपादक बना दिए गए। 1982 में, अस्वस्थता और लेबनान युद्ध के कारण फ़ैज़ पाकिस्तान वापस आ गए, वो दमा और लो ब्लड प्रेशर के मरीज़ थे। 1964 में अदब के नोबेल पुरस्कार के लिए उनको नामांकित किया गया था लेकिं किसी फ़ैसले से पहले 20 नवंबर 1984 को उनका देहावसान हो गया।

फ़ैज़ समग्र रूप से एक आम अदीब-ओ-शायर से बेहतर ज़िंदगी गुज़ारी। वो हमेशा लोगों की मुहब्बत में घिरे रहे। वो जहां जाते लोग उनसे दीवाना-वार प्यार करते। फ़ैज़ बुनियादी तौर पर रूमानी शायर हैं और उनकी शायरी को माशूक़ों की कुमुक बराबर मिलती रही। एक बार अमृता प्रीतम को राज़दार बनाते हुए उन्होंने कहा था, “मैंने पहला इश्क़ 18 साल की उम्र में किया। लेकिन हिम्मत कब होती थी ज़बान खोलने की। उसका ब्याह किसी डोगरे जागीरदार से हो गया।” दूसरा इश्क़ उन्होंने एलिस से किया। “फिर एक शनासा छोटी सी लड़की थी वो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। अचानक मुझे महसूस हुआ कि वो बच्ची नहीं बड़ी हस्सास और नौजवान ख़ातून है। मैंने एक बार फिर इश्क़ की गहराई देखी। फिर उसने किसी बड़े अफ़सर से शादी कर ली। इसके अलावा भी कुछ पर्दा-नशीनों से उनके ताल्लुक़ात थे जिनको उन्होंने पर्दे में ही रखा।

फ़ैज़ मूलतः रूमानी शायर हैं। रूमानियत उनका स्वभाव है। वो ज़िंदगी की उलझनों परेशानियों और तल्ख़ियों का सामना एक हस्सास शायर की तरह करते हैं लेकिन न बग़ावत पर उतरते हैं और न नारे लगाते हैं बल्कि उन तल्ख़ियों को सहते हुए उस ज़हर को अमृत बना देते हैं। वो एक युग निर्माता शायर थे और एक पूरे युग को प्रभावित किया। उनकी शायरी में कई उर्दू, अंग्रेज़ी शायरों की गूंज सुनाई देती है लेकिन आवाज़ उनकी अपनी है। वो इस लिहाज़ से प्रगतिशील शायरों के मीर-ए-कारवां हैं कि उन्होंने आधुनिक युग की आवशयकताओं के साथ अपनी शायरी का सामंजस्य स्थापित किया। उनकी ग़ज़लों में एक नया लब-ओ-लहजा और नया इश्क़ का तसव्वुर मिलता है। इसमें एक नई कैफ़ीयत के साथ साथ ताज़ा एहसास और एक ख़ास वलवला मिलता है जिसमें ताज़गी और शगुफ़्तगी है। वैश्विक स्तर पर भाषा और रूपक में कोई प्रासंगिकता न होने के बावजूद कुछ काव्य अनुभव सामान्य होते हैं। मुहब्बत दुनिया में सब करते हैं और उत्पीड़न व शोषण किसी न किसी रूप में मानव जाति की नियति रही है। फ़ैज़ ने इन्सानी ज़िंदगी के इन दो पहलूओं को इस क़दर यकजान कर दिया कि इश्क़ का दर्द और उत्पीड़न व शोषण की पीड़ा एक दूसरे में विलीन हो कर एक फ़र्यादी बन गई। फ़ैज़ की शायरी की सार्वभौमिक अपील और उसकी अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता का यही रहस्य है।

फ़ैज़ की कृतियों में नक़्श-ए-फ़र्यादी, दस्त-ए-सबा, ज़िंदाँ नामा, दस्त-ए-तह-ए-संग, सर वादी-ए- सीना, शाम-ए-शहर-ए-याराँ और मेरे दिल मरे मुसाफ़िर के अलावा नस्र में मीज़ान, सलीबें मरे दरीचे में और मता-ए-लौह-ओ-क़लम शामिल हैं। उन्होंने दो फिल्मों जागो सवेरा और दूर है सुख का गांव के लिए गीत भी लिखे। फ़ैज़ और एलिस की औलाद में दो बेटियाँ हैं जिनका नाम सलीमा और मुनीज़ा है।

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