aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
''बार-ए-ज़ियाँ'' याक़ूब यावर की मुंतख़ब ग़ज़लियात का मजमूआ है। मुसन्निफ़ अपनी गुफ़्तनी में शायरी के फ़ल्सफ़े, मौजूदा दौर में इसकी अहमियत और मुआसिर उर्दू शायरी को दरपेश चैलेंजज़ पर रोशनी डालते हैं, जैसे मिसालियत परस्ती और हक़ीक़ी ज़िंदगी से दूरी। वह नक़्क़ादों के किरदार और सच्ची बातों के इज़हार में दरपेश मुश्किलों पर भी बहस करते हैं। यह मजमूआ मुतसादिम एहसासात के दरमियान वज़ाहत तलाश करने और इंतिशार से होशमंदी कशीद करने की शायर की कोशिशों का अक्कास है।
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