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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : नासिर काज़मी

प्रकाशक : शान-ए-हिन्द पब्लिकेशन, नई दिल्ली

मूल : नई दिल्ली, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1990

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : काव्य संग्रह

पृष्ठ : 153

सहयोगी : रेख़्ता

barg-e-nai
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पुस्तक: परिचय

ناصر کاظمی کا شمار نہ تو قدیم شاعر وں میں ہوتا ہے اور نہ ہی جدید رنگ کے شاعر وں میں، کیونکہ انہوں نے ترقی پسند تحریک کے عروج کے زمانہ میں اپنے شعر کے فکر ی پیمانے کو رومانوی رکھا ساتھ ہی غزلوں میں عصرِ حاضر کے مسائل سے کبھی نظر نہیں چرائی۔ الغرض ایسی غزلیں کہیں جن کارنگ کلاسیکی شعرا سے لیا گیا تھا ۔ ’’برگ نے ‘‘ 1954 میں شائع ہونے والا ان کا پہلا مجموعہ کلام ہے۔ اس مجموعہ میں بڑی شاندار غزلیں ہیں۔ فنی طور پر ناصر کاظمی کی غزلوں میں دکھ کی ہلکی سی سلگتی ہوئی آنچ نظر آتی ہے لیکن اس میں دکھ ، جھلاہٹ و غصہ کے بنا ایک ایسی کیفیت ہے جو میر کے یہاں موجود ہے ۔ناصر نے اپنی غزلوں میں جودکھ بیان کیے ہیں وہ آفاقی نظر آتے ہیں ۔محض حسن و عشق ہی نہیں بلکہ زندگی کا مکمل مشاہدہ ملتا ہے ۔ الغرض نئے دورکی شاعری میں قدیم لہجے کا عکس آپ کو ان کی شاعری میں پڑھنے کو ملے گی ۔

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लेखक: परिचय

उर्दू ग़ज़ल का मानूस अजनबी

"नासिर काज़मी के कलाम में जहां उनके दुखों की दास्तान, ज़िंदगी की यादें नई और पुरानी बस्तीयों की रौनक़ें, एक बस्ती से बिछड़ने का ग़म और दूसरी बस्ती बसाने की हसरत-ए-तामीर मिलती है, वहीं वो अपने युग और उसमें ज़िंदगी बसर करने के तक़ाज़ों से भी ग़ाफ़िल नहीं रहते। उनके कलाम में उनका युग बोलता हुआ दिखाई देता है।
हामिदी काश्मीरी

"ग़ज़ल का अहवाल दिल्ली का सा है। ये बार-बार उजड़ी है और बार-बार बसी है, कई बार ग़ज़ल उजड़ी लेकिन कई बार ज़िंदा हुई और इसकी विशिष्टता भी यही है कि इसमें अच्छी शायरी हुई है।” (नासिर काज़मी)
नासिर काज़मी का ये क़ौल उनकी शायरी पर पूरा उतरता है। एक ऐसे दौर में जब ग़ज़ल मातूब थी, नासिर काज़मी ऐसे अद्वितीय ग़ज़लगो के रूप में उभरे, जिन्होंने न केवल उजड़ी हुई ग़ज़ल को नई ज़िंदगी दी, बल्कि प्रकृति और सृष्टि के हुस्न से ख़ुद भी हैरान हुए, और अपने रचनात्मक जौहर से दूसरों को भी हैरान किया। विस्मय का एहसास ही नासिर की शायरी की वो ख़ुशबू थी, जो फ़िज़ाओं में फैल कर उसमें सांस लेने वालों के दिलों में घर कर लेती है। जीलानी कामरान के अनुसार नासिर ने अपनी ग़ज़ल के ज़रिए अपने ज़माने में और अपनी समकालीन पीढ़ियों के लिए काव्य ब्रह्मज्ञान का जो दृश्य संपादित किया है, वो हमारे काव्य साहित्य में एक क़ीमती अध्याय का इज़ाफ़ा करता है। नासिर काज़मी देश विभाजन के बाद ऐसे शायर के तौर पर सामने आते हैं जो ग़ज़ल के रचनात्मक किरदार को तमाम-ओ-कमाल बहाल करने में कामयाब हुए। नई पीढ़ी के शायर नासिर काज़मी की अभिव्यक्ति को अपने दिल-ओ-जान से क़रीब महसूस करते हैं क्योंकि नई शायरी सामूहिकता से किनाराकश हो कर निजी ज़िंदगी से गहरे तौर पर वाबस्ता हो गई है, इस मीलान के नतीजे में नासिर काज़मी अपने पढ़ने वालों को इंसानियत और सामूहिकता की तब्लीग़ करने वाले शायरों के मुक़ाबले में, ख़ुद से ज़्यादा क़रीब महसूस होते हैं।

नासिर काज़मी 8 दिसंबर 1925 ई. को अंबाला में पैदा हुए। उनका असल नाम सय्यद नासिर रज़ा काज़मी था। उनके वालिद सय्यद मुहम्मद सुलतान काज़मी फ़ौज में सूबेदार मेजर थे और माँ एक पढ़ी लिखी ख़ातून अंबाला के मिशन गर्लज़ स्कूल में टीचर थीं। नासिर ने पांचवीं जमात तक उसी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। बाद में माँ की निगरानी में गुलसिताँ, बोस्तां, शाहनामा फ़िरदौसी, क़िस्सा चहार दरवेश, फ़साना आज़ाद, अलिफ़ लैला, सर्फ़-ओ-नहव और उर्दू शायरी की किताबें पढ़ीं। बचपन में पढ़े गए दास्तानवी अदब का असर उनकी शायरी में भी मिलता है। नासिर ने छटी जमात नेशनल स्कूल पेशावर से, और दसवीं का इम्तिहान मुस्लिम हाई स्कूल अंबाला से पास किया। उन्होंने बी.ए के लिए लाहौर गर्वनमेंट कॉलेज में दाख़िला लिया था, लेकिन विभाजन के हंगामों में उनको शिक्षा छोड़नी पड़ी। वो निहायत कसमपुर्सी की हालत में पाकिस्तान पहुंचे थे। नासिर ने कम उम्र ही में ही शायरी शुरू कर दी थी। उनका तरन्नुम बहुत अच्छा था।

शायरी में उनके आरंभिक आदर्श मीर तक़ी मीर और अख़्तर शीरानी थे। उनकी शायरी में इश्क़ की बड़ी कारफ़रमाई रही। मिज़ाज लड़कपन से आशिक़ाना था। चुनांचे वो पूरी तरह जवान होने से पहले ही घायल हो चुके थे। उनका बयान है "इश्क़, शायरी और फ़न यूं तो बचपन से ही मेरे ख़ून में है, लेकिन इस ज़ौक़ की परवरिश में एक दो माशक़ों का बड़ा हाथ रहा, पहला इश्क़ उन्होंने तेरह साल की उम्र में हुमैरा नाम की एक लड़की से किया और उसके इश्क़ में दीवाने हो गए। उनके कॉलेज के साथी और दोस्त जीलानी कामरान का बयान है, "उनका पहला इश्क़ हुमैरा नाम की एक लड़की से हुआ। एक रात तो वो इस्लामिया कॉलेज रेलवे रोड के कॉरीडोर में धाड़ें मार मार कर रो रहा था और दीवारों से लिपट रहा था और हुमैरा हुमैरा कह रहा था। ये सन् 1944 का वाक़िया है लेकिन उसके बाद उन्होंने जिस लड़की से इश्क़ किया उसका सुराग़ किसी को नहीं लगने दिया। बस वो उसे सलमा के फ़र्ज़ी नाम से याद करते थे। ये इश्क़ दर्द बन कर उनके वजूद में घुल गया और ज़िंदगी-भर उनको घुलाता रहा। सन् 1952 में उन्होंने बचपन की अपनी एक और महबूबा शफ़ीक़ा बेगम से शादी कर ली जो उनकी ख़ालाज़ाद थीं। नासिर का बचपन लाड प्यार में गुज़रा था और कोई महरूमी उनको छू भी नहीं गई थी। कबूतरबाज़ी, घोड़ सवारी, सैर सपाटा, उनके मशाग़ल थे लेकिन जब पाकिस्तान पहुंच कर उनकी ज़िंदगी तलपट हो गई तो उन्होंने एक कृत्रिम और ख़्याली ज़िंदगी में पनाह ढूँढी। वो दोस्तों में बैठ कर लंबी लंबी छोड़ते और दोस्त उनसे आनंदित होते। जैसे शिकार के दौरान शेर से उनका दो बार सामना हुआ लेकिन दो तरफ़ा मरव्वतें आड़े आ गईं, एक बार तो शेर आराम कर रहा था इसलिए उन्होंने उसे डिस्टर्ब करना मुनासिब नहीं समझा, फिर दूसरी बार जब शेर झाड़ियों से निकल कर उनके सामने आया तो उनकी बंदूक़ में उस वक़्त कारतूस नहीं लगा था। शेर नज़रें नीची कर के झाड़ियों में वापस चला गया। एक-बार अलबत्ता उन्होंने शेर मार ही लिया। उसकी चर्बी अपने कबूतरों को खिलाई तो बिल्लियां उन कबूतरों से डरने लगीं। वो ऐसी जगह अपनी हवाई जहाज़ के ज़रिए आमद बयान करते जहां हवाई अड्डा होता ही नहीं था। कल्पना को हक़ीक़त के रूप में जीने की नासिर की उन कोशिशों पर उनके दोस्त ज़ेर-ए-लब मुस्कुराते भी थे और उनके हाल पर अफ़सोस भी करते थे। अंबाला में एक बड़ी कोठी में रहने वाले नासिर को लाहौर में पुरानी अनारकली के एक ख़स्ता-हाल मकान में दस बरस रहना पड़ा। हिज्रत के बाद वो बेरोज़गार और बे-यार-ओ-मददगार थे। उनके माँ-बाप विभाजन की तबाहियों और उसके बाद की परेशानियाँ ज़्यादा दिन नहीं झेल सके और चल बसे। नासिर ने कल्याण विभाग और कृषि विभाग में छोटी मोटी नौकरियां कीं। फिर उनके एक हमदर्द ने नियमों में ढील करा के उनको रेडियो पाकिस्तान में नौकरी दिला दी और वो बाक़ी ज़िंदगी उसी से जुड़े रहे। नासिर ने जितनी नौकरियां कीं, बेदिली से कीं। अनुशासन और नासिर काज़मी दो परस्पर विरोधी चीज़ें थीं। मेहनत करना उन्होंने सीखा ही नहीं था, इसीलिए रूचि और शौक़ के बावजूद वो संगीत और चित्रकारी नहीं सीख सके। वो एक आज़ाद पंछी की तरह प्रकृति के हुस्न में डूब जाने और अपने अंतर व बाह्य की स्थितियों के नग़मे सुनाने के क़ाइल थे। वो शायरी को अपना मज़हब कहते थे। शादी की पहली रात जब उन्होंने अपनी बीवी को ये बताया कि उनकी एक और बीवी भी है तो दुल्हन के होश उड़ गए फिर उन्होंने उनको अपनी किताब “बर्ग-ए-नै” पेश की और कहा कि ये है उनकी दूसरी बीवी। यही उनकी तरफ़ से दुल्हन की मुँह दिखाई थी। अपनी निजी ज़िंदगी में नासिर हद दर्जा ला उबाली और ख़ुद अपनी जान के दुश्मन थे। 26 साल की उम्र से ही उनको दिल की बीमारी थी लेकिन कभी परहेज़ नहीं किया। इंतहाई तेज़ चूने के पान खाते। एक के बाद एक सिगरेट सुलगाते, होटलों पर जा कर नान, मुर्ग़, और कबाब खाते और दिन में दर्जनों बार चाय पीते। रात जागरण उनका नियम था। रात रात-भर आवारागर्दी करते। इन लापरवाहियों की वजह से उनको 1971 ई. में मेदा का कैंसर हो गया और 2 मार्च 1972 ई. को उनका देहांत हो गया। “बर्ग-ए-नै” के बाद उनके दो संग्रह “दीवान” और “पहली बारिश” प्रकाशित हुए। “ख़्वाब-ए-निशात” उनकी नज़्मों का संग्रह है। उन्होंने एक छंदोबद्ध ड्रामा “सुर की छाया” भी लिखा। शायर होने के साथ साथ वो एक अच्छे गद्यकार भी थे। रेडियो की नौकरी के दौरान उन्होंने क्लासिकी उर्दू शायरों के रेखाचित्र लिखे जो बहुत लोकप्रिय हुए।

नासिर काज़मी की शख़्सियत और शायरी दोनों में एक अजीब तरह की सह्र अंगेज़ी पाई जाती है। अपनी पारंपरिक शब्दावलियों के बावजूद उन्होंने ग़ज़ल को अपनी तर्ज़-ए-अदा की बरजस्तगी और अनोखेपन से संवारा। उन्होंने सैद्धांतिक प्रवृत्ति से बुलंद हो कर शायरी की इसलिए उनका मैदान-ए-शे’र दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा विस्तृत और व्यापक है जिसमें बहरहाल केंद्रीय हैसियत इश्क़ की है। उनकी पूरी शायरी एक अजायबघर है जिसमें दाख़िल होने वाला देर तक उसके जादू में खोया रहता है। उन्होंने शायरी और नस्री अभिव्यक्ति के लिए बहुत ही सरल और सामान्य भाषा का इस्तेमाल किया। उनकी गुफ़्तगु का जादू सर चढ़ कर बोलता है। उनकी नस्र भी ख़ुद उनकी तरह सादा मगर गहरी है। उन्होंने हर्फ़ ज़ेर लबी के धीमे, आन्तरिक और सरगोशी के लहजे में अपना वजूद मनवाया और उर्दू ग़ज़ल को क्लेशों से आज़ाद करते हुए उस के पोशीदा संभावनाओं से लाभ उठाया और उसे रचनात्मक पूर्णता की नई दहलीज़ पर ला खड़ा किया।

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