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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : बेदम शाह वारसी

प्रकाशक : हिंदुस्तानी बुक डिपो, लखनऊ

मूल : लखनऊ, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1935

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी, सूफ़ीवाद / रहस्यवाद

उप श्रेणियां : दीवान, शायरी

पृष्ठ : 176

सहयोगी : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

deewan-e-bedam shah warsi
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पुस्तक: परिचय

صوت سرمدی سننے کے لئے اور اسے سن کر نغمہ سنج ہونے کے لئے ضروری ہے کہ قلب و ذہن کی تمام تر آلائشوں سے انسان خود کو پاک و صاف کرے۔ جب اس کا دل صاف اور خالص ہو جائے گا تو اس کا ذہن اس ذات کے بارے میں سوچنا شروع کر دیگا ۔جو مسلسل و مستقل فیکن کی صدا بلند کرتا رہتا ہے۔ مگر اس نغمہ اصلی کو سننے کے لئے بصیرت ربانی ضروری ہے۔ جس دن اسے یہ حاصل ہو جاتی ہے اسی دن سے وہ خدا کی ذات سے جو کچھ بھی استفادہ کرتا ہے اور عالم غیب سے جو کچھ سنتا ہے خود بھی نغمہ سرائی کرنے لگتا ہے۔ پھر اگر اس کو "انا الحق" کی صدا سنائی دیتی ہے تو خود بھی انا الحق کی بانگ بلند کرنے لگتا ہے۔بیدم وارثی انہیں شخصیات میں سے ایک ہیں جنہوں نے خدا کی ذات میں محو ہوکر نغمہ سرائی کی ۔ یہ ان کے ابتدائی زمانے کا کلام ہے جو ذات ربانی سے والہانہ جذب کی حالت میں لکھا گیا۔

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लेखक: परिचय

बेदम शाह वारसी का असली नाम ग़ुलाम हुसैन था। पीर-व-मुर्शीद सैयद वारिस अली शाह ने उनका नाम बेदम शाह वारसी रखा था। उनका जन्म 1876 में हुआ। उनके पिता का नाम सैयद अनवर था। वो इटावा के रहने वाले थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा इटावा में ही हुई।  दूसरों की ग़ज़लें सुनकर गुनगुनाया करते थे। शायर बनने की तमन्ना में आगरा गए। शायरी में निसार अकबराबादी के शिष्य  हुए । वो अपनी शायरी और सूफ़ियाना स्वभाव की वजह से सिराज अल-शुआरा के खिताब से संबोधित किए जाने लगे। उनकी ग़ज़लें गाने वाले और कव्वालों के बीच शुरू से ही पसंदीदा रही हैं। बेदम अपनी गज़ल और मनक़बत किसी को भी सुनाने से पहले अस्ताना-ए- वारसी पर सुनाते थे।1936 में लखनऊ हुसैन गंज में निधन हुआ। उनका  आख़री दीवान मुसहफ़-ए-बेदम है। इस संग्रह को उनका कुल्लियात भी कहा जाता है। उन्होंने वारसी अली शाह की जीवनी फूलों की चादर के शीर्षक से शेर के शैली में लिखा। उनकी शायरी  में सूफ़ियाना कलाम के अलावा भजन, ठुमरी , दादरा और पूर्वी भाषा के के कलाम भी मौजूद हैं। आज भी उनका कलाम लोगों की जबान पर है।

 

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