aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ की गिनती मशहूर प्रगतिशील शायरों में होती है. उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की सतह पर प्रगतिशील विचार और सिद्धांत को आम करने की कोशिश की बल्कि इस के लिए व्यवहारिक स्तर भी आजीवन संघर्ष करते रहे. ताबाँ की पैदाइश 15 फ़रवरी 1916 को कायमगंज ज़िला फर्रुखाबाद में हुई. आगरा कालेज से एल.एल.बी.की. कुछ अर्से वकालत के पेशे से सम्बद्ध रहे लेकिन शायरना मेज़ाज ने उन्हें देर तक उस पेशे में रहने नहीं दिया.व कालत छोड़कर दिल्ली आगये और मक्तबा जामिया से सम्बद्ध हो गये और एक लम्बे अर्से तक मकतबे के जनरल मैनेजर के रूप में काम करते रहे.
ताबाँ की शायरी की नुमायाँ शनाख्त उसका क्लासिकी और प्रगतिवादी विचार व स्रजनात्मक तत्वों से गुंधा होना है. उनके यहाँ विशुद्ध वैचारिक और इन्क़लाबी सरोकारों के बावजूद भी एक विशेष रचनात्मक चमक नज़र आती है जिस प्रगतिवादी विचारधारा के तहत की गयी शायरी का अधिक्तर हिस्सा वंचित नज़र आता है. ताबाँ ने आरम्भ में दूसरे प्रगतिवादी शायरों की तरह सिर्फ़ नज़्में लिखीं लेकिन वह अपने पहले काव्य संग्रह ‘ साज़े लर्जां’ (1950) के प्रकाशन के बाद सिर्फ़ ग़ज़लें कहने लगे .उनकी ग़ज़लों के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए ,जिनमें ‘हदीसे दिल’,’ज़ौके सफ़र’,’नवाए आवारा’,और ‘गुबारे मंज़िल ‘ शामिल हैं. ताबाँ ने शायरी के अलावा अपने विचारों को आम करने के लिए पत्रकारिता के ढंग का राजनैतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक समस्याओं पर आलेख भी लिखे और अनुवाद भी किये. उनके आलेखों का संग्रह ‘शे’रियात से सियासियात’ तक के नाम से प्रकाशित हुआ.Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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