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पुस्तक: परिचय

رفیع الدین ہاشمی صاحب نے اقبالیات اور اردو زبان و ادب پر درجنوں کتابیں تصنیف و تالیف کی ہیں۔جن میں،کتابیات اقبال،تصانیف اقبال کا تحقیقی و توضیحی مطالعہ،اقبال کی طویل نظمیں:فکری و فنی مطالعہ،اقبالیات :مسائل و مباحث،اقبالیات کے سو سال،اقبالیات :تفہیم و تجزیہ،اقبالیاتی ادب ، وغیرہ ان کی اقبالیات کے موضوع پر کئی مفید اور معلوماتی کتابیں اہمیت کی حامل ہیں۔پیش نظر"خطوط اقبال" بھی اسی موضوع سے متعلق ہے۔ جس میں علامہ اقبال کے ایک سو گیارہ غیر مدون خطوط کو یکجا کیا گیا ہے۔ جو اس سے پہلے اقبال کےکسی بھی مجموعہ خطوط میں شامل نہیں ہیں۔ کتاب میں موجود ڈاکٹر سید عبداللہ کا پیش لفظ اور خود مصنف کا وقیع اور مستند دیباچہ سے کتاب کی اہمیت واضح ہوجاتی ہے۔ان خطوط میں بعض اقبال کے ذاتی اور بعض ادبی خطوط ہیں۔ جن سے کلام اقبال سے متعلق بھی اہم معلومات فراہم ہورہی ہیں۔ایک نہایت ہی مفید پہلو اس مجموعہ کا یہ ہے کہ مرتب نے ان تمام شخصیتوں کے مختصر کوائف بھی ہر خط کے ساتھ پیش کردئے ہیں۔جن سے علامہ اقبال نے خط و کتابت کی۔اس کے علاوہ حواشی و تعلیقات بھی لکھے ہیں جن کے باعث اس کتاب کی افادیت میں اضافہ ہورہاہے۔

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लेखक: परिचय

“इक़बाल की शायरी विचारों की शायरी है लेकिन जो विशेषताएं विचारों को शायरी बनाती है वो ये है कि इक़बाल उपमाओं, रूपकों और विशिष्ट प्रतीकों के माध्यम से अपने विचारों को विशिष्ट रूप में प्रस्तुत करते हैं जिसका तक़ाज़ा है कि विचारों के संवेदी विकल्प तलाश किए जाएं ताकि विचारों को भावना की सतह पर लाया जा सके और विचार मात्र सूखा विचार न रह कर एक संवेदी और मानसिक अनुभव बन जाये और एक ख़ास तरह की धारणा का रूप इख़्तियार कर ले। यही बात कम-ओ-बेश प्रतीकों के चुनाव में भी सामने आती है।” 
(अक़ील अहमद सिद्दीक़ी)

इक़बाल युग को पहचानने वाले और युग निर्माता शायर थे। उनकी शायरी एक विचार के ख़ास निज़ाम से रोशनी हासिल करती है जो उन्होंने पूरब व पश्चिम के सियासी, सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक परिस्थितियों के गहन अवलोकन के बाद संकलित किया था और महसूस किया था कि उच्च मानवीय मूल्यों का जो पतन दोनों जगह मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में इंसानियत को जकड़े हुए है उसका हल ज़रूरी है। विशेष रूप से पूरब की बदहाली उनको बेचैन रखती थी और वो उसके कारणों से भी अवगत थे, लिहाज़ा उन्होंने इंसानी ज़िंदगी को सुधारने और उसे तरक़्क़ी की राह पर डालने के लिए अपनी शायरी को ज़रिया बनाया। इक़बाल आदमी की महानता के अलमबरदार थे और वो किसी बख़्शी हुई जन्नत की बजाय अपने ख़ून-ए-जिगर से ख़ुद अपनी जन्नत बनाने की प्रक्रिया को अधिक संभावित और अधिक जीवनदायिनी समझते थे। इसके लिए उसका नुस्ख़ा तजवीज़ करते हुए उन्होंने कहा था, “पूरब के राष्ट्रों को ये महसूस कर लेना चाहिए कि ज़िंदगी अपनी हवेली में किसी तरह का इन्क़िलाब नहीं पैदा कर सकती जब तक उसकी अंदरूनी गहराईयों में इन्क़िलाब न पैदा हो और कोई नई दुनिया एक बाहरी अस्तित्व नहीं हासिल कर सकती जब तक उसका वजूद इंसानों के ज़मीर में रूपायित न हो।” वो पश्चिम को आध्यात्मिक रूप से बीमार मानते थे। उनका ख़्याल था कि उसका सुधार उस वक़्त तक नामुमकिन है जब तक उसकी अक़ल होश-ओ-हवस की गु़लामी से नजात हासिल करके “ह्रदय का साहित्य” न हो जाये और इसके लिए सोज़-ए-इश्क़ ज़रूरी है। इक़बाल का इश्क़ उर्दू शायरी और तसव्वुफ़ के पारंपरिक इश्क़ से भिन्न है। वो ऐसे इश्क़ के क़ाइल थे जो इच्छाओं में विस्तार पैदा कर के जीवन और ब्रह्मांड को मुग्ध कर सके। उनका कहना था कि इश्क़ को कर्म से मज़बूती मिलती है जबकि कर्म के लिए यक़ीन का होना ज़रूरी है और यक़ीन ज्ञान से नहीं इश्क़ से हासिल होता है। वो इश्वक़, ज्ञान और बुद्धि को अविभाज्य और एक के बिना दूसरे को अधूरा समझते थे। इश्क़ के अलावा इक़बाल की दूसरी अहम शे’री इस्तिलाह “ख़ुदी” (स्व) है। ख़ुदी से इक़बाल का तात्पर्य वो उच्चतम मानवीय गुण हैं जिनकी बदौलत इंसान को श्रेष्ठतम प्राणियों के सर्वोच्च स्थान पर स्थापित किया गया है। इस ख़ुदी को पैदा करने के लिए जज़्बा-ए-इश्क़ ज़रूरी है क्योंकि इश्वक़ ही ख़ुदी को पूरा करता है और दोनों एक दूसरे से क़ुव्वत हासिल करते हैं। इक़बाल के नज़दीक इश्क़ और ज्ञान के मेल से व्यक्ति के सुधार और समाज के निर्माण का काम मुकम्मल होता है।

इक़बाल की शायरी मूल रूप से सक्रियता व कर्म और निरंतर संघर्ष की मांग करती है। यहां तक  कि उनके यहां कभी कभी ये संघर्ष उद्देश्य प्राप्ति के माध्यम की बजाय ख़ुद मक़सद बनती नज़र आती है। “जो कबूतर पर झपटने में मज़ा है ए पिसर, वो मज़ा शायद कबूतर के लहू में भी नहीं।” इक़बाल ने अपने दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति जिस कलात्मक और शे’री रचाओ के साथ किया वो एक ऐसा कारनामा है जो अपनी नज़ीर आप है। वो एक समय में शायर, दार्शनिक, समाज सुधारक, सियासतदां और विद्वान थे लेकिन उनकी शायराना शख़्सियत ने उनकी शख़्सियत के तमाम पहलूओं को अपने अंदर समेट लिया था। अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए इक़बाल ने उर्दू की शे’री भाषाविज्ञान में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा किया। वो नज़्म के ही नहीं ग़ज़ल के भी बड़े शायर थे। इन्होंने एक तरफ़ नज़्म को एक नया क़रीना अता किया तो दूसरी तरफ़ ग़ज़ल भी उनके यहां एक नए और ताज़ा शैली के साथ जलवागर है। इक़बाल के काव्यात्मक विषयों ने उनके गीतात्मक सामंजस्य पर कभी काबू नहीं पाया। उनकी नज़्मों में ज़बरदस्त गीतात्मकता और माधुर्य है। इक़बाल की परंपरा में ऐसी शक्ति है जिसकी ताज़गी में सम्भावनाओं की एक दुनिया आबाद है।   

शेख़ मुहम्मद इक़बाल 09 नवंबर 1877 ई. को स्यालकोट में पैदा हुए। उनके पूर्वज सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राहमण थे लेकिन इस्लाम क़बूल कर के स्यालकोट में बस गए थे। इक़बाल के पिता शेख़ नूर मुहम्मद ज़्यादा पढ़े लिखे या ख़ुशहाल नहीं थे लेकिन दीनदार थे और उल्मा के साथ उठते बैठते थे। शम्सुल उल्मा मीर हसन स्यालकोटी उनको “अनपढ़ फ़लसफ़ी” कहते थे। इक़बाल की आरंभिक शिक्षा मकतब में हुई। प्राइमरी, मिडल और मैट्रिक के इम्तहानों में विशेष योग्यता से पास हो कर वज़ीफ़ा लिया। एफ़.ए स्काच स्कूल स्यालकोट से पास करके बी.ए के लिए गर्वनमेंट कॉलेज लाहौर में दाख़िला लिया। यहीं उनकी मुलाक़ात अरबी के स्कालर टी.डब्ल्यू आरनल्ड से हुई। इक़बाल ने 1899 ई. में दर्शनशास्त्र में एम.ए की डिग्री हासिल की और उसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए। 1905 ई. में वो उच्च शिक्षा के लिए इंग्लिस्तान चले गए और कैंब्रिज में दाख़िला लिया। इक़बाल की पहली शादी छात्र जीवन में ही एक प्रतिष्ठित परिवार की महिला से हो गई थी जिनसे उनका एक बेटा आफ़ताब इक़बाल था। इसके बाद उन्होंने और दो शादियां कीं।

प्रसिद्ध ख़ातून अतिया ज़ैदी के साथ भी इक़बाल की दोस्ती रही, जो ख़ुद भी शिक्षा के उद्देश्य से लंदन में निवास करती थीं और जिन्होंने बौद्धिक साहित्यिक रूचि रखने वाली एक माडर्न हिन्दुस्तानी महिला की हैसियत से उच्च समाजिक समुदायों में अपनी जगह बना ली थी। मिज़ाजों में समानता की वजह से दोनों में नज़दीकी पैदा हुई। लंदन से वापसी के बाद भी दोनों में ख़त-ओ-किताबत जारी रही। उर्दू शायरी पर बहरहाल अतीया का ये एहसान है कि उन्होंने इक़बाल को रियासत हैदराबाद की मुलाज़मत से धूमधाम के साथ रोका क्योंकि उनका ख़्याल था कि दरबारदारी इक़बाल की बेपनाह रचनात्मक सलाहीयतों के लिए जानलेवा ज़हर साबित होगी।

इक़बाल ने कम उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थी।1890 ई. के एक तरही मुशायरे में इक़बाल ने “मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए, क़तरे जो थे मिरे अर्क़-ए-इंफ़िआल के”  पढ़ के मात्र 17 साल की उम्र में उस वक़्त के बड़े शायरों चौंका दिया। उसके बाद इक़बाल अंजुमन हिमायत इस्लाम के जलसों में बाक़ायदगी से शिरकत करने लगे।1900 ई. में अंजुमन के एक जलसे में इन्होंने अपनी मशहूर नज़्म “नाला-ए-यतीम” पढ़ी जो अपने अछूते अंदाज़ और कमाल सोज़-ओ- गुदाज़ की वजह से इतनी मक़बूल हुई कि इजलास में यतीमों की  सहायता के लिए रूपयों की बारिश होने लगी और आँसूओं के दरिया बह गए और नज़्म की एक एक मुद्रित प्रति चार रुपये में बिकी। उसके बाद इक़बाल की नज़्में अंजुमन के जलसों की विशेषता बन गईं। एक अप्रैल 1904 ई. में साहित्यिक पत्रिका “मख़ज़न” का लोकार्पण हुआ तो उसमें इक़बाल की नज़्म  “हिमाला” प्रकाशित हुई। इसके साथ ही उनकी नए अंदाज़ की नज़्मों और ग़ज़लों के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ और इक़बाल हिंदुस्तान के प्रथम पंक्ति के शायरों में श्रेष्ठ स्थान पर स्थापित हो गए।

इक़बाल ने कैंब्रिज और म्यूनिख़ यूनीवर्सिटीयों से दर्शनशास्त्र में सर्वोच्च डिग्रियां प्राप्त कीं। पी. एचडी. के लिए उनके शोध का विषय “ईरान में मा बाद उल तबीआत का इर्तिक़ा” था। पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने लंदन से बैरिस्ट्री का इम्तिहान भी पास किया। स्वदेश वापस आकर वो गर्वनमेंट कॉलेज लाहौर में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर नियुक्त किए गए और साथ साथ वकालत भी करते रहे जिसकी कॉलेज ने उन्हें विशेष अनुमति दे दी थी। बाद में उन्होंने कॉलेज की नौकरी छोड़ दी और वकालत को ही अपना पेशा बना लिया। कुछ अरसा तक उनकी शायरी ख़ामोश रही लेकिन फिर उनकी क़ौमी-ओ-मिल्ली नज़्मों का वो सिलसिला शुरू हुआ जो उनकी नित्य शोहरत का बाइस बना। उनमें “शिकवा”, “शम्मा-ओ-शायर”, “ख़िज़्र-ए-राह” और “तुलूअ-ए-इस्लाम” अंजुमन के जलसों में पढ़ी गईं।1910 ई. में फ़ारसी मसनवी “इसरार-ए-ख़ुदी” प्रकाशित हुई और फिर तीन साल बाद “रमूज़-ए-बेख़ुदी” मंज़र-ए-आम पर आई जो “इसरार-ए-ख़ुदी” का परिपूरक था। इसके बाद इक़बाल की शायरी के संग्रह एक के बाद एक प्रकाशित होते रहे। आख़िरी संग्रह “अरमुग़ान-ए-हिजाज़” उनकी ज़िंदगी में तैयार था लेकिन मौत के बाद प्रकाशित हुआ। सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेते हुए इक़बाल 1926 ई. में पंजाब क़ानूनसाज़ असेंबली के सदस्य चुने गए और 1930 ई. में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद इजलास में उनको अध्यक्ष चुना गया। 1935 ई. में पंजाब यूनीवर्सिटी ने और अगले साल अलीगढ़ यूनीवर्सिटी ने उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधियां दीं।

1935 ई. में ईद के दिन सेवईयां खाने के बाद उनका गला बैठ गया। डाक्टरों के मुताबिक़ उनके हलक़ में रसौली पैदा हो गई थी। बिजली के इलाज से कुछ लाभ हुआ लेकिन आवाज़ पूरी तरह बहाल नहीं हुई। वकालत का काम बंद हो गया, ऐसे में रियासत भोपाल ने दाद रसी की और 500 रुपये माहवार उनका वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया। उनकी दूसरी बेगम का देहांत 1935 ई. में हो गया था जो दो कमसिन बच्चे छोड़ गई थीं। उनकी तर्बीयत की परेशानी ने इक़बाल की सेहत और ज़्यादा बिगाड़ दी। उनको दमा के दौरे पड़ने लगे। खाँसते खाँसते बेहोश हो जाते थे। दिसंबर 1937 ई. में मर्ज़ ने शिद्दत इख़्तियार कर ली और 21 अप्रैल 1938 ई. को उनका स्वर्गवास हो गया।

इक़बाल की शायरी में उद्देश्य की प्राथमिकता है। वो अपने कलाम से पूर्व के राष्ट्रों पर छाई  काहिली और गतिरोध को तोड़ना चाहते थे और इसके लिए वो इश्क़, अक़ल, मज़हब, ज़िंदगी और कला को एक विशेष दृष्टिकोण से देखते थे। उनके यहां दिल के साथ दिमाग़ की सक्रियता स्पष्ट है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उनका कलाम मात्र दार्शनिक और बौद्धिक है और इसमें कवित्व की कोई कमी है। उनके मुफ़क्किराना कलाम में भी सोज़ और जज़्बे का गहरा गुदाज़ शामिल है। उन्होंने अपने कलाम में उर्दू के क्लासिकी धरोहर से लाभ उठाया लेकिन साथ ही साथ उर्दू शायरी को नई शब्दावलियों, उपमाओं और प्रतीकों का एक ख़ूबसूरत ज़ख़ीरा भी अता किया। उन्होंने आवश्यकतानुसार भाषा का प्रयोग किया, कहीं परंपरा का पालन किया तो कहीं उसकी अवज्ञा की। रशीद अहमद सिद्दीक़ी के अनुसार इक़बाल की नज़्मों का शबाब उनकी ग़ज़लों की शराब में डूबा हुआ है। इक़बाल ने उर्दू शायरी से दुख और अवसाद के तत्वों को ख़त्म कर के उसमें आशावाद, उत्साह और जीवटता पैदा की। इक़बाल के यहां चिंतन और भाव का ऐसा मिश्रण है कि उनके दार्शनिक विचार उनकी आंतरिक स्थितियों और घटनाओं का आईना बन गए हैं, इसीलिए उनके दर्शन में कशिश और आकर्षण है। इक़बाल ने अपने दौर और अपने बाद आने वाली पीढ़ियों को ऐसी ज़बान दी जो हर तरह की भावनाओं और विचारों को ख़ूबसूरती के साथ अदा कर सके। उनके बाद शुरू होने वाले साहित्यिक आंदोलन किसी न किसी शीर्षक से उनके जादू में गिरफ़्तार रहे हैं। उर्दू के तीन महान शायरों में मीर की शायरी अपने पाठकों को उनका अनुयायी बनाती है, ग़ालिब की शायरी आकर्षित और मंत्रमुग्ध करती है और इक़बाल की शायरी पाठक को उनका प्रशंसक और चाहनेवाला बनाती है।

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