'अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
कोई जोड़ मुझ पर मुक़र्रर बनाया
कोई सर्व रखता न था रास्त ये है
तिरे क़द को मैं ने सनोबर बनाया
किया मैं ने जल्लाद उसे अपने हक़ में
सितम सहते सहते सितमगर बनाया
न गिनता था कोई हसीनों में ओ बुत
तुझे दे के दिल मैं ने दिलबर बनाया
शकर-लब कहा मैं ने कड़वे हुए तुम
अबस मुँह को मुझ से सितमगर बनाया
'अनासिर से ख़ालिक़ ने ख़िल्क़त बनाई
तुझे नूर से हूर-पैकर बनाया
तिरा आशिक़-ए-ज़ार रोज़-ए-अज़ल से
बनाया मुझे ओ सितमगर बनाया
भला क्या जवाब इस का देगा तू क़ातिल
अगर ख़ून का मैं ने महज़र बनाया
मिरी अक़्ल हैराँ है बार-ए-इलाहा
तिलिस्मात-ए-दुनिया को क्यूँ-कर बनाया
पड़ी जान उड़ने लगा मेरे 'ईसा
रुई का जो तू ने कबूतर बनाया
हमा-वक़्त मुमकिन नहीं वस्ल-ए-दिलबर
हँसी-खेल क्या जान-ए-मुज़्तर बनाया
वो हूँ साहिब-ए-ज़र्फ़ हरगिज़ न छलका
अगर ख़ाक का मेरी साग़र बनाया
ख़याल-ए-दहन ने किया तंग मुझ को
कमर के तसव्वुर ने लाग़र बनाया
घुले सोज़-ए-फ़ुर्क़त में उस शम'-रू के
ये हाल अपना क्यूँ 'रिंद' जल कर बनाया
स्रोत:
Deewan-e-Rind(Guldast-e-ishq) (Rekhta Website) (Pg. 38)
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लेखक:
रिन्द लखनवी
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- संस्करण: 1931
- प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, लखनऊ
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