हुस्न की वो सूरतें ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
पर्दा-ए-दिल में लगा कर आग पिन्हाँ हो गईं
मिट के भी आईना-ए-रुख़्सार-ए-ख़ूबाँ हो गईं
ख़ून-ए-अहल-ए-इश्क़ की बूँदें गुलिस्ताँ हो गईं
छुप गईं आँखों से ज़र्रों में नुमायाँ हो गईं
बस्तियाँ उजड़ी हुई मिल कर बयाबाँ हो गईं
देखता कौन और बुझाता कौन उस दिल की लगी
हड्डियाँ जल जल के शम-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गईं
ज़िंदगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से नजात
जो दुआएँ कीं वो सब तेरी निगहबाँ हो गईं
इस हवा-ए-दहर में जमईयत-ए-ख़ातिर कहाँ
दिल को जाने दो ये ज़ुल्फ़ें क्यूँ परेशाँ हो गईं
ज़ोफ़ बाक़ी है कोई जिस का नहीं पुर्सान-ए-हाल
क़ुव्वतें सब नज़र-ए-इश्क़-ए-फ़ित्ना-सामाँ हो गईं
लूट ली गर्दूं ने आख़िर दिल की सारी काएनात
कुछ तमन्नाएँ थीं वो भी वक़्फ़-ए-निस्याँ हो गईं
दोस्त-दार-ए-गुल हूँ मैं किस ने क़फ़स से कह दिया
मुझ को पा कर तीलियाँ ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हो गईं
कम न समझो दहर में सरमाया-ए-अर्बाब-ए-ग़म
चार बूँदें आँसुओं की बढ़ के तूफ़ाँ हो गईं
आरज़ू-ए-आलम-ए-फ़ानी था आदम का वजूद
ख़्वाहिशें थीं जो बहम घुल-मिल के इंसाँ हो गईं
ख़ानुमाँ-बरबादियों का मुझ पे एहसाँ है कि मैं
उन ज़मीनों में नहीं जो बस के वीराँ हो गईं
मेरी आँखें शोर था जिन की वफ़ा का हर तरफ़
ज़ख़्म दिल में पड़ते ही दोनों नमक-दाँ हो गईं
उक़्दा-हा-ए-ग़म से वाबस्ता है अपनी ज़िंदगी
हम कहाँ ये मुश्किलें जिस वक़्त आसाँ हो गईं
मैं निसार-ए-दस्त-ए-क़ातिल मर के ज़िंदा हो गया
ख़ंजर-ओ-शमशीर की धारें रग-ए-जाँ हो गईं
इक सराब-ए-दश्त थीं फ़स्लें शबाब-ए-हुस्न की
देखते ही देखते आँखों से पिन्हाँ हो गईं
क्या वफ़ादारों के जी डूबे हैं जोश-ए-इश्क़ में
कश्तियाँ दिल की हज़ारों नज़्र-ए-तूफ़ाँ तूफ़ाँ गईं
मजमा-ए-अहबाब की रूदाद 'साक़िब' क्या कहूँ
अब वो अगली सोहबतें ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
स्रोत :
- पुस्तक : Deewan-e-Saqib (पृष्ठ 223)
- रचनाकार : Mirza Zakir Husain Qazlibaas Saqib Lucknowvi
-
प्रकाशन : Urdu Acadami U.P.
(1998)
- संस्करण : 1998
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