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तारीकियों में नूर का या-रब गुज़र न हो

मेहदी मछली शहरी

तारीकियों में नूर का या-रब गुज़र न हो

मेहदी मछली शहरी

MORE BYमेहदी मछली शहरी

    तारीकियों में नूर का या-रब गुज़र हो

    मेरी वो शाम हो जो रहीन-ए-सहर हो

    मैं सिर्फ़ इंतिज़ार-ए-रह-ए-यार ही रहूँ

    मेरी शब-ए-फ़िराक़ कभी मुख़्तसर हो

    बे-रह-रवी की मंज़िल-ए-आवार्गां में भी

    थक जाऊँ तो तलाश-ए-रह-ओ-राहबर हो

    गुम-कर्दा-राह हो के भटकता ही मैं रहूँ

    ग़ुर्बत की शाम में भी रफ़ीक़-ए-सफ़र हो

    शजर-ए-हयात बाग़-ए-जहाँ में हमारी तरह

    क़तअ’-ओ-बुरीद दहर से यूँ बे-समर ना हो

    क्यों वक़्फ़-ए-सद-अलम हों अन्फ़ास-ए-मुस्तआ'र

    क्यों जाँ-सेताँ मिरे लिए मर्ग-ए-पिसर हो

    बेगाना-वार हो के मैं अपने वजूद से

    पहुँचूँ वहीं जहाँ मुझे अपनी ख़बर हो

    मेहमाँ हूँ चंद दिन का गो शाम-ए-बे-कसी

    मश्क़-ए-सितम में तेरे मगर कुछ कसर हो

    तू हरीम-ए-नाज़ से हुस्न-ए-शो'ला-पाश

    मुझ को वो आँख दे जिसे ताब-ए-नज़र हो

    लोगों की हर दुआ तो हो मक़्बूल-ए-बारगाह

    मेरी इक आह-ए-नीम-शबी में असर हो

    कहते हैं इक जहाँ जिसे मरदान-ए-ख़ुद-फ़रेब

    हंगामा-आफ़रीनी-ए-शाम-ओ-सहर हो

    जिस ने किया है दरहम-ओ-बरहम निज़ाम-ए-दहर

    या-रब किसी की वो निगह-ए-फ़ित्ना-गर हो

    जाँ-कंदनी में भी हो कोई शरीक-ए-हाल

    मर जाऊँ भी तो पास कोई नौहागर हो

    मय्यत के साथ साथ फ़रिश्तों का हो हुजूम

    इंसाँ कोई शरीक-ए-जनाज़ा मगर हो

    आए बा'द-ए-दफ़्न कहीं सुब्ह-ए-बाज़-पुर्स

    शाम-ए-मुराद मेरी कहीं मुख़्तसर हो

    क्यूँकर हो कामयाब जहान-ए-ख़राब में

    तब्अ'-ए-हज़ीन-ओ-ज़ार में हिम्मत अगर हो

    जन्नत की आरज़ू में ये ताअ'त अबस है शैख़

    शायद किसी के फ़ज़्ल पे ये मुनहसिर हो

    हर ज़र्रा रश्क-ए-तूर नज़र रहा है जो

    होता है ये गुमाँ कि फ़रेब-ए-नज़र हो

    हो नूरइम्बिसात से हर शख़्स बहरा-वर

    या-रब जहाँ में कोई भी ज़ुल्मत-बसर हो

    हर नक़्श-ए-पा को देख के झुक जाती है जबीं

    ये जान कर कहीं वो तिरी रहगुज़र हो

    परवाज़-ए-जाफ़री हो अता मेरी ना'श को

    मेरा जनाज़ा उठ के कहीं बार-ए-सर हो

    जिन को है वास्ता मिरी जान-ए-अज़ीज़ से

    बर्बादियों की मेरे उन्हें कुछ ख़बर हो

    आसाँ हो राह-ए-ज़ीस्त तो गिर-पड़ के एक दिन

    दुश्वार तो यही है कि दुश्वार-तर हो

    मबज़ूल उस के रहम-ओ-करम को जो कर सके

    'मेहदी' वो आह मेरी हो जो बे-असर हो

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