तेशा-ब-कफ़ को आइना-गर कह दिया गया
तेशा-ब-कफ़ को आइना-गर कह दिया गया
जो ऐब था उसे भी हुनर कह दिया गया
साया है प्यार का न मोहब्बत की धूप है
दीवार के हिसार को घर कह दिया गया
इन के हर एक गोशे में सदियाँ मुक़ीम हैं
टूटी इमारतों को खंडर कह दिया गया
ख़ुद्दारी-ए-अना है न पिंदार-ए-ज़ीस्त है
शानों के सारे बोझ को सर कह दिया गया
आँगन में हर मकाँ के अँधेरों का राज है
महलों की रौशनी को सहर कह दिया गया
कुछ ख़ौफ़-ए-जाँ है और न कुछ फ़िक्र-ए-हिज्र-ए-यार
ख़ुश-गामियों को रंज-ए-सफ़र कह दिया गया
हैरत दरोग़ मस्लहत-आमेज़ पर हो क्या
बे-बर्ग झाड़ियों को शजर कह दिया गया
देखा कहाँ है आग के दरियाओं का सफ़र
जुगनू उड़े तो रक़्स-ए-शरर कह दिया गया
कुछ एहतिराम-ओ-हुस्न-ए-अक़ीदत के जोश में
हर नक़्श आब-ए-नक़्श-ए-हजर कह दिया गया
खुल जाएगा भरम तिरी मीज़ान-ए-अद्ल का
दो एक हर्फ़-ए-जुर्म अगर कह दिया गया
ना-आश्ना-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-आम है
वो रास्ता भी राहगुज़र कह दिया गया
यूँ ख़ुश हैं जैसे वाक़िअ'तन हो गए ख़ुदा
मजबूरियों के ज़ेर-ए-असर कह दिया गया
'अंजुम' यहाँ तक आने में क्या क्या गुज़र गई
मोहर-ए-सर-ए-मिज़ा भी गुहर कह दिया गया
- पुस्तक : Libas-e-zakhm (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : Badruddin Ahmed Khan
- प्रकाशन : Anjum Irfani (1984)
- संस्करण : 1984
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