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बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है

मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है

मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

MORE BYमिर्ज़ा सलामत अली दबीर

    बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है

    मरयम दरूद-ए-ख़्वाँ है ये किस की जनाब है

    शान-ए-ख़ुदा अयाँ है ये किस की जनाब है

    दहलीज़-ए-आसमाँ है ये किस की जनाब है

    कुर्सी ज़मीं से लेती है गोशे पनाह के

    बैठा है अर्श साए में इस बारगाह के

    हूरान-ए-हिश्त-ए-ख़ुल्द हैं इक एहतिमाम को

    दार-उस-सलाम दर पे झुका है सलाम को

    सजदा यहीं हलाल है बैत-उल-हराम को

    सूरज निसार सुब्ह को है चाँद शाम को

    देखा करे खड़े हुए इस आस्ताँ को

    याँ बैठने का हुक्म नहीं आसमान को

    सहरा-ए-लामकाँ की फ़िज़ा इस से तंग है

    जन्नत का नाम उस की बुजु़र्गी का नंग है

    फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा के साया का हर जा पे ढंग है

    याँ धूप में भी काग़ज़-ए-अबयज़ का रंग है

    ज़ाइर को इस हरीम के ऐश-ओ-निशात है

    उस का बिछौना रहमत-ए-हक़ की बिसात है

    इफ़्फ़त पुकारती है मुक़ाम-ए-हिजाब है

    शैऊ, जनाब-ए-फ़ातमा की ये जनाब है

    हव्वा आसिया का ये बाहम ख़िताब है

    ज़ोहरा के रोब-ओ-दबदबा से ज़ोहरा आब है

    जारी है मुँह जारिया-ए-फ़ातिमा हैं हम

    मख़दूमा-ए-जहाँ की वो इक ख़ादिमा हैं हम

    हर ख़िश्त-ए-रोज़ा दफ़्तर-ए-हिक्मत की फ़र्द है

    मादूम याँ ज़माने का हर गर्म-ओ-सर्द है

    याँ ग़म का है गुबार कुलफ़त की गर्द है

    पर साहिब-ए-रवाक़ के पहलू में दर्द है

    हम तुम ये जानते थे कि सोती हैं फ़ातिमा

    इस की ख़बर नहीं है कि रोती हैं फ़ातिमा

    शान-ए-ख़ुदा है सल्ल-ए-अली शान-ए-फ़ातिमा

    हैदर की जा-नमाज़ है दामान-ए-फ़ातिमा

    रोज़ा हर एक रोज़ है मेहमान-ए-फ़ातिमा

    कहती है ईद-ए-फ़ित्र में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा

    बहर-ए-नमाज़ क़ुव्वत की तक़लील करती हैं

    तस्बीह हक़ में आप को तहलील करती हैं

    मदहोश हैं फ़ज़ाइल-ए-ज़ोहरा में चशम-ओ-गोश

    ख़ुद बे-लिबास और ख़लायक़ की पर्दा-पोश

    उस्रत से बे-हवास मगर याद-ए-हक़ का होश

    फ़ाक़ा से चेहरा ख़ुश्क पे दरिया-दिली का जोश

    मुस्तग़नी-उल-मिज़ाज हैं आलम-ए-नवाज़ हैं

    ज़ेवर से मिसल-ए-ज़ात-ए-ख़ुदा बे-नियाज़ हैं

    बाग़-ए-फ़दक जो ग़सब सितम गार ने किया

    तप को मुती-ए-फ़ातिमा ग़फ़्फ़ार ने किया

    हाकिम हर एक दर्द का मुख़तार ने किया

    ज़ोहरा ने जो कहा वो हर आज़ार ने किया

    सादिक़ से इस बयान की सेहत-ए-हुसूल है

    रौशन दुआ-ए-नूर से शान-ए-बतूल है

    रुख़ जलवा-गाह-क़ुदरत-ए-परवरदिगार है

    दिल राज़दार-ए-ख़लवत-ए-परवरदिगार है

    सर जाँ-निसार-ए-रहमत-ए-परवरदिगार है

    तन ख़ाकसार-ए-ताअत-ए-परवरदिगार है

    तस्बीह से अयाँ शरफ़-ए-फ़ातिमा हुआ

    ज़िक्र-ए-ख़ुदा का फ़ातिमा पर ख़ातिमा हुआ

    बाग़ों में ख़ुल्द नहरों में कौसर है इंतिख़ाब

    क़िब्लों में काअबा मसहफ़ों में आख़िरी किताब

    तारों में आफ़ताब-ए-मुबीं फूलों में गुलाब

    सब औरतों में फ़ातिमा मर्दों में बूतिराब

    शाह-ए-ज़नान-ए-वक़्त मसीहा की माँ हुईं

    ज़ोहरा हर एक अस्र में शाह-ए-ज़नाँ हुईं

    उलफ़त ख़ुदा के बाद हबीब-ए-ख़ुदा की है

    मंसब के आगे ये भी दिला किबरिया की है

    पर्वा फ़ाक़ा की शिकायत जफ़ा की है

    ईज़ा फ़क़त जुदाई-ए-ख़ैर-उल-वरा की है

    आब-ओ-ग़िज़ा की फ़िक्र सोने का ध्यान है

    आँखों में शक्ल बाप की रोने का ध्यान है

    कुछ नोश कर लिया जो किसी ने खिला दिया

    लेकिन अज़ा में कुछ ना ग़िज़ा ने मज़ा दिया

    ग़श में किसी ने के जो पानी पिला दिया

    क़तरा पिया और आँखों से दरिया बहा दिया

    निसबत है किस से फ़ातिमा के शोर-ओ-शैन को

    ज़ोहरा के बाद रोई हैं ज़ैनब हुसैन को

    सुन कम क़ल्क़ ज़्यादा क़लक़ से फ़ुग़ाँ सिवा

    सीने से दिल तो दिल से जिगर नातवाँ सिवा

    रोने से चशम-ए-पाक हुई ख़ूँफ़िशाँ सिवा

    तप वो कि नब्ज़ों से तपिश-ए-इस्तिख़्वाँ सिवा

    जब फ़ातिमा ने हा-ए-पिदर कह के आह की

    हिलने लगी ज़रीह रिसालत-ए-पनाह की

    फ़िज़्ज़ा कनीज़-ए-फ़ातिमा करती है ये बयाँ

    घर से हुआ जनाज़ा पयंबर का जब रवाँ

    बैठी की बैठी रह गई मख़दूमा-ए-जहाँ

    इक हफ़्ता रात दिन रहें हुजरे में नीम-जाँ

    देखा जो मैं ने झांक के तो आँख बंद है

    आवाज़ आह आह की दिल से बुलंद है

    बेटे पुकारते हैं ये लिल्लाह बाहर आओ

    अम्माँ इतना रोओ गुलामों पे रहम खाओ

    नाना कहाँ गए हैं बुला लाएँ हम बताओ

    हम कुरते फाड़ते हैं नहीं तो गले लगाओ

    नाना के बाद हाय ये बे-क़दर हम हुए

    सब की तरफ़ हुज़ूर के भी प्यार कम हुए

    हम-साइयाँ ये कहती थीं आशिक़-ए-पिदर

    दीदार-ए-मुस्तफ़ा तो है मौक़ूफ़ हश्र पर

    उन के इवज़ तो अपनी ज़ियारत से शाद कर

    हुजरे में पीटती है ये कह कर वो नौहा-गर

    अब मैं हूँ और हर एक हिक़ारत है साहिबो

    मुझ बे-पिद्र की ख़ाक-ए-ज़ियारत है साहिबो

    अल-क़िस्सा बाद-ए-हफ़्ते के दिन आठवाँ हुआ

    और नील पोश ज़ुल्मत-ए-शब से जहाँ हुआ

    याँ महर-ए-बुर्ज हुजरा-ए-मातम अयाँ हुआ

    पर इस तरह कि मुर्दा का सब को गुमाँ हुआ

    ये शक्ल हो गई थी अज़ा में रसूल की

    पहचानी बेटियों ने सूरत बतूल की

    वो वक़्त शाम और अंधेरा इधर उधर

    शिशदर हर एक रह गया मुँह देख देख कर

    ज़ैनब ने जा के हुजरे में ढ़ूंडा बचश्म-ए-तर

    चिल्लाईं वो कि हाय निकल जाऊँ मैं किधर

    माँ मेरी क्या हुईं मैं क़ल्क़ से मलूल हूँ

    मुड़ कर पुकारें आप मैं ही तो बतूल हूँ

    फ़िज़्ज़ा बयान करती है उस वक़्त का ये हाल

    तन ज़ार हो के बन गया था सूरत-ए-हिलाल

    मातम के नील सीने पे रोने से आँखें लाल

    मुँह ज़र्द होंट ख़ुश्क परेशान सर के बाल

    रोती चलें मज़ार-ए-रसूल-ए-अनाम को

    जिस तरह शम्म-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ हो शाम को

    अंधेर फ़ातिमा के निकलने से हो गया

    तूफ़ान-ए-नूह अश्कों के ढलने से हो गया

    बरहम ज़माना हाथों के मलने से हो गया

    आजिज़ फ़लक भी राह के चलने से हो गया

    हवा कफ़न से क़ब्र में मुँह ढांपने लगी

    आदम लहद में तड़पे ज़मीं काँपने लगी

    जुज़ अश्क दोनों आँखों में हर शैय थी ख़ार ख़ार

    गिर कर रिदा उलझती थी क़दमों से बार बार

    था मातमी क़बा का गिरेबान तार तार

    दिल था नहीफ़-ओ-ज़ार पे रोती थी ज़ार ज़ार

    जब आह की तो चार तरफ़ बिजलियाँ गिरीं

    थर्रा के याँ गिरीं कभी ग़श खा के वाँ गिरीं

    क़ुदसी खड़े थे अर्श-ए-मुअल्ला के आस-पास

    तस्बीह की ख़बर थी तजलील के हवास

    दोज़ख़ जुदा ख़ुरोश में मालिक जुदा उदास

    ग़िलमान हूर जिन परी पर हुजूम-ए-यास

    ग़ुल था कि सब के दिल को हिलाती हैं फ़ातिमह

    क़ब्र-ए-रसूल-ए-पाक पर आती हैं फ़ातिमा

    रस्ते से लोग फ़िज़्ज़ा ने बढ़ कर हटा दिए

    हमसाइयों ने गिरफों के पर्दे गिरा दिए

    मर्दों के मुँह पे दौड़ के दामाँ उड़ा दिए

    सब ने चिराग़ अपने घरों के बुझा दिए

    कहती थीं फ़ातिमा के पिदर का ये शहर है

    नामहरमों ने बी-बी को देखा तो क़हर है

    यसरिब में वक़्त-ए-शाम ये ज़ोहरा का था अदब

    दिन को फिराया बलवी में ज़ैनब को है ग़ज़ब

    अल-क़िस्सा आई क़ब्र पे वो कुश्ता-ए-ताब

    पर किस घड़ी कि हिलती थी क़ब्र-ए-रसूल-ए-रब

    तुर्बत के गर्द फिरने से ताक़त जो घट गई

    लेकर बलाएँ क़ब्र से ज़ोहरा लिपट गई

    चलाई आह इबिता मुहमदा

    नूर अल्लाह वा इबिता वा मोहम्मदा

    शाहों के शाह इबिता मोहम्मदा

    वा सैयदाह वा इबिता वा मोहम्मदा

    बाबा बतूल आई है तस्लीम के लिए

    उठिए यतीम बेटी की ताज़ीम के लिए

    गुज़रे हैं आठ दिन की ज़ियारत नहीं हुई

    इस बे-नसीब से कोई ख़िदमत नहीं हुई

    मिंबर है सोना वाज़-ओ-नसीहत नहीं हुई

    मस्जिद में भी नमाज़-ए-जमात नहीं हुई

    हज़रत के मुँह से वहीइ-ए-ख़ुदा भी नहीं सुनी

    जिबरील के परों की सदा भी नहीं सुनी

    हुजरा वही है घर है वही एक तुम नहीं

    तारे वही क़मर है वही एक तुम नहीं

    शब है वही सहर है वही एक तुम नहीं

    है है ये बे है पिदर है वही एक तुम नहीं

    देते हैं सब दुआ कि शिफ़ा पाए फ़ातिमा

    और फ़ातिमा ये कहती है मर जाए फ़ातिमा

    तस्लीम मेरी पिदर है नामदार लो

    तुर्बत पे अपनी तुम मुझे सदक़े उतार लो

    क़ुर्बान तुम पे हूँ ख़बर है दिल है फ़िगार लो

    मुश्ताक़ हूँ कि फ़ातिमा कह कर पुकार लो

    पूछो ये तुम मिज़ाज तुम्हारा बख़ैर है

    लौंडी कहे कि हाल जुदाई से ग़ैर है

    दिल किस का ग़म में आप के नौहा-कुनाँ नहीं

    वो कौन घर है जिस में कि आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं

    आँसू वो कौन है जो मुसलसल रवाँ नहीं

    उम्मत पे आप सा तो कोई मेहरबाँ नहीं

    ख़ालिक़ के बाद बंदों के जो कुछ थे आप थे

    बेओं के पर्दा-दार यतीमों के बाप थे

    ख़्वाहाँ हर एक दम रहे उम्मत के चैन के

    की महर तुम ने क़त्ल पे मेरे हसीन के

    एहसाँ हैं शीयों पर नबी-ए-मशरिक़ैन के

    नारे बुलंद करते हैं सब शोर-ओ-शेन के

    बे-हश्र के तुम्हारी ज़यारत होए-गी

    हो-गी वो कौन आँख जो तुम पर रोए-गी

    आसाँ पिसर का दाग़ है मुश्किल पिदर का दाग़

    वो कुछ दिनों का दाग़ है ये उम्र भर दाग़

    ये तन-बदन का दाग़ है वो इक जिगर का दाग़

    पैदा हुआ पिसर तो मिटा इस पिसर का दाग़

    औलाद का बदल है पिदर का बदल नहीं

    ये दर्द है कि जिस की दवा जुज़ अजल नहीं

    और बाप भी वो बाप कि सर-ताज-ए-अंबिया

    नूर-ए-ख़ुदा जलाल-ए-ख़ुदा रहमत-ए-ख़ुदा

    रोज़-ए-अज़ल से ता-ब-अबद कल का पेशवा

    बेटी पे सदक़े बेटी के बच्चों पे भी फ़िदा

    क्यूँ-कर अपनी मौत तुझे अब क़ुबूल हो

    दुनिया में ऐसा बाप हो और बतूल हो

    क्या सो रहे हो क़ब्र में तन्हा जवाब दो

    चिल्ला रही है आप की ज़ोहरा जवाब दो

    मौला जवाब दो मरे आक़ा जवाब दो

    दिल मानता नहीं मैं करूँ क्या जवाब दो

    बोलो मैं सदक़े जाऊँ बहुत दिल-मलूल हूँ

    बाबा बतूल हूँ मैं तुम्हारी बतूल हूँ

    फिरते थे जब सफ़र से मिरे पास आते थे

    लौंडी से बे-मिले कभी बाहर जाते थे

    फ़ाक़ा मिरा जो सुनते थे खाना खाते थे

    जो जो मैं नाज़ करती थी हज़रत उठाते थे

    कैसी हक़ीर बाद-ए-रसूल-ए-करीम हूँ

    दुर्र-ए-यतीम आगे थी अब तो यतीम हूँ

    बाबा अज़ाँ बिलाल के मुँह की मुझे सुनाओ

    बाबा नमाज़ी आए हैं मस्जिद में तुम भी जाओ

    बाबा वसी को अपने बुला कर गले लगाओ

    बाबा नवासे ढूंढते फिरते हैं मुँह दिखाओ

    इक इक घड़ी पहाड़ है मुझ दिल-ए-मलूल को

    बाबा कहो बुलाओ-गे किस दिन बतूल को

    फिर्ती है याँ सकीना की इज़्ज़त निगाह में

    ज़ोहरा नबी की क़ब्र पे थी अशक-ओ-आह में

    आए जो ऊँट बेओं के मक़्तल की राह में

    बे-साख़ता सकीना गिरी क़तल-गाह में

    बेदाद अहल-ए-ज़ुलम ने की शोर-ओ-शेन पर

    रोने दिया बेटी को लाश-ए-हुसैन पर

    अल-क़िस्सा फ़ातिमा हुई बे-होश क़ब्र पर

    ज़ैनब के पास दौड़ी गई फ़िज़्ज़ा नंगे-सर

    ज़ैनब ने पूछा ख़ैर तो है बोली पीट कर

    जामा नबी का दो तो सिन्घाओं में नौहा-गर

    हमसाईयाँ हैं गर्द हरासाँ खड़ी हुईं

    बी-बी की अम्मां-जान हैं ग़श में पड़ी हुईं

    नाना का ख़ास जामा नवासी ने ला दिया

    फ़िज़्ज़ा ने जा के बीबी को ग़श में सुंघा दिया

    ख़ुशबू ने उस की रूह को ऐसा मज़ा दिया

    जामे पे बोसा फ़ातिमा ने जा-ब-जा दिया

    पढ़ कर दरूद बात सुनाई वो यास की

    तो बीबियाँ तड़पने लगीं आस-पास की

    दिल का सुख़न है आह पुकारी वो बे-पिदर

    याक़ूब ने जो सूँघा था पैराहन-ए-पिसर

    यूसुफ़ के देखने की तवक़्क़ो थी किस क़दर

    मेरी उम्मीद क़ता है बाबा से उम्र भर

    पूछूँ कहाँ तलाश करूँ किस दैर में

    यूसुफ़ तो मेरा सोता है लोगो मज़ार में

    रोने लगीं ये कह के वो ख़ातून-ए-नेक-ज़ात

    घर में ज़नान-ए-हाशमिया लाएँ हाथों-हाथ

    काफ़िर भी रहम खाए जो देखे ये वारिदात

    उम्मत का अब सुलूक सुनो फ़ातिमा के साथ

    नज़रों से नूर-ए-चश्म-ए-नबी को गिरा दिया

    दरवाज़ा-ए-अली-ए-दिली को गिरा दिया

    आगे ना सुन सकेंगे ग़ुलामान-ए-फ़ातिमा

    दर के तले बुलंद है अफ़्ग़ान-ए-फ़ातिमा

    क्या वक़्त-ए-बे-कसी है में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा

    रुकती है सांस होंटों पे है जान-ए-फ़ातिमा

    मोहसिन जुदा तड़पता है पहलू में दिल जुदा

    माँ मुज़्महिल जुदा है पिसर मुज़्महिल जुदा

    सहमे हुए हसैन हसन पास आते हैं

    दरवाज़ा नन्हे हाथों से मिल कर उठाते हैं

    घबराइयो वालिदा ये कहते जाते हैं

    उठता नहीं जो दर तो अली को बुलाते हैं

    ज़ोहरा पुकारती थी