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अपनी मल्का-ए-सुख़न से

जोश मलीहाबादी

अपनी मल्का-ए-सुख़न से

जोश मलीहाबादी

MORE BYजोश मलीहाबादी

    रोचक तथ्य

    नज़्म के कुछ बन्दों को हिंदी फ़िल्म के महान अभिनेता दिलीप कुमार ने दुबई के इक मुशायरे में पढ़ीं l

    शम-ए-'जोश' मशअ'ल-ए-ऐवान-ए-आरज़ू

    मेहर-ए-नाज़ माह-ए-शबिस्तान-ए-आरज़ू

    जान-ए-दर्द-मंदी ईमान-ए-आरज़ू

    शम-ए-तूर यूसुफ़-ए-कनआ'न-ए-आरज़ू

    ज़र्रे को आफ़्ताब तो काँटे को फूल कर

    रूह-ए-शे'र सज्दा-ए-शाइ'र क़ुबूल कर

    दरिया का मोड़ नग़्मा-ए-शीरीं का ज़ेर-ओ-बम

    चादर शब-ए-नुजूम की शबनम का रख़्त-ए-नम

    तितली का नाज़-ए-रक़्स ग़ज़ाला का हुस्न-ए-रम

    मोती की आब गुल की महक माह-ए-नौ का ख़म

    इन सब के इम्तिज़ाज से पैदा हुई है तू

    कितने हसीं उफ़ुक़ से हुवैदा हुई है तू

    होता है मह-वशों का वो आलम तिरे हुज़ूर

    जैसे चराग़-ए-मुर्दा सर-ए-बज़्म-ए-शम-ए-तूर

    कर तिरी जनाब में कार-साज़-ए-नूर

    पलकों में मुँह छुपाते हैं झेंपे हुए ग़ुरूर

    आती है एक लहर सी चेहरों पर आह की

    आँखों में छूट जाती हैं नब्ज़ें निगाह की

    रफ़्तार है कि चाँदनी रातों में मौज-ए-गंग

    या भैरवीं की पिछले पहर क़ल्ब में उमंग

    ये काकुलों की ताब है ये आरिज़ों का रंग

    जिस तरह झुटपुटे में शब-ओ-रोज़ की तरंग

    रू-ए-मुबीं गेसू-ए-सुम्बुल-क़वाम है

    वो बरहमन की सुब्ह ये साक़ी की शाम है

    आवाज़ में ये रस ये लताफ़त ये इज़्तिरार

    जैसे सुबुक महीन रवाँ रेशमी फुवार

    लहजे में ये खटक है कि है नेश्तर की धार

    और गिर रहा है धार से शबनम का आबशार

    चहकी जो तू चमन में हवाएँ महक गईं

    गुल-बर्ग-ए-तर से ओस की बूँदें टपक गईं

    जादू है तेरी सौत का गुल पर हज़ार पर

    जैसे नसीम-ए-सुब्ह की रौ जू-ए-बार पर

    नाख़ुन किसी निगार का चाँदी के तार पर

    मिज़राब-ए-अक्स-ए-क़ौस रग-ए-आबशार पर

    मौजें सबा की बाग़ पे सहबा छिड़क गईं

    जुम्बिश हुई लबों को तो कलियाँ चटक गईं

    चश्म-ए-सियाह में वो तलातुम है नूर का

    जैसे शराब-ए-नाब में जौहर सुरूर का

    या चहचहों के वक़्त तमव्वुज तुयूर का

    बाँधे हुए निशाना कोई जैसे दूर का

    हर मौज-ए-रंग-ए-क़ामत-ए-गुलरेज़ रम में है

    गोया शराब-ए-तुंद बिलोरीं क़लम में है

    तुझ से नज़र मिलाए ये किस की भला मजाल

    तेरे क़दम का नक़्श हसीनों के ख़द्द-ओ-ख़ाल

    अल्लाह रे तेरे हुस्न-ए-मलक-सोज़ का जलाल

    जब देखती हैं ख़ुल्द से हूरें तिरा जमाल

    परतव से तेरे चेहरा-ए-पर्वीं-सरिश्त के

    घबरा के बंद करती हैं ग़ुर्फ़े बहिश्त के

    चेहरे को रंग-ओ-नूर का तूफ़ाँ किए हुए

    शम-ओ-शराब-ओ-शे'र का उनवाँ किए हुए

    हर नक़्श-ए-पा को ताज-ए-गुलिस्ताँ किए हुए

    सौ तूर इक निगाह में पिन्हाँ किए हुए

    आती है तू चमन में जब इस तर्ज़-ओ-तौर से

    गुल देखते हैं बाग़ में बुलबुल को ग़ौर से

    मेरे बयाँ में सेहर-बयानी तुझी से है

    रू-ए-सुख़न पे ख़ून-ए-जवानी तुझी से है

    लफ़्ज़ों में रक़्स-ओ-रंग-ओ-रवानी तुझी से है

    फ़क़्र-ए-गदा में फ़र्र-ए-कियानी तुझी से है

    फ़िदवी के इस उरूज पे करती है ग़ौर क्या

    तेरी ही जूतियों का तसद्दुक़ है और क्या

    किर्दगार-ए-मा'नी ख़ल्लाक़-ए-शेर-ए-तर

    जान-ए-ज़ौक़ मुहसिना-ए-लैली-ए-हुनर

    खुल जाए गर ये बात कि उर्दू ज़बान पर

    तेरी निगाह-ए-नाज़ का एहसाँ है किस क़दर

    चारों तरफ़ से नारा-ए-सल्ले-अला उठे

    तेरे मुजस्समों से ज़मीं जगमगा उठे

    मेरे हुनर में सर्फ़ हुई है तिरी नज़र

    ख़ेमा है मेरे नाम का बाला-ए-बहर-ओ-बर

    शोहरत की बज़्म तुझ से मुनव्वर नहीं मगर

    फ़र्क़-ए-गदा पे ताज है सुल्ताँ बरहना-सर

    परवाने को वो कौन है जो मानता नहीं

    और शम्अ' किस तरफ़ है कोई जानता नहीं

    दिल तेरी बज़्म-ए-नाज़ में जब से है बारयाब

    हर ख़ार एक गुल है तो हर ज़र्रा आफ़्ताब

    इक लश्कर-ए-नशात है हर ग़म के हम-रिकाब

    ज़ेर-ए-नगीं है आलम-ए-तमकीन-ओ-इज़तिराब

    बाद-ए-मुराद चश्मक-ए-तूफ़ाँ लिए हुए

    हूँ बू-ए-ज़ुल्फ़-ओ-जुंबिश-ए-मिज़्गाँ लिए हुए

    तेरे लबों से चश्मा-ए-हैवाँ मिरा कलाम

    तेरी लटों से मौजा-ए-तूफ़ाँ मिरा कलाम

    तेरी नज़र से तूर-ब-दामाँ मिरा कलाम

    तेरे सुख़न से नग़्मा-ए-यज़्दाँ मिरा कलाम

    तू है पयाम-ए-आलम-ए-बाला मिरे लिए

    इक वही-ए-ज़ी-हयात है गोया मिरे लिए

    माह-ए-शेर-परवर मेहर-ए-सुख़न-वरी

    आब-ओ-रंग-ए-'हाफ़िज़' हुस्न-ए-'अनवरी'

    तू ने ही सब्त की है ब-सद नाज़-ए-दावरी

    मेरे सुख़न की पुश्त पे मोहर-ए-पयम्बरी

    तेरी शमीम-ए-ज़ुल्फ़ की दौलत लिए हुए

    मेरा नफ़स है बू-ए-रिसालत लिए हुए

    दुर-हा-ए-आब-दार शरर-हा-ए-दिल-नशीं

    शब-हा-ए-तल्ख़-ओ-तुर्श सहर-हा-ए-शक्करीं

    अक़्ल-ए-नशात-ख़ेज़ जुनून-ए-ग़म-आफ़रीं

    दौलत वो कौन है जो मिरी जेब में नहीं

    टकराई जब भी मुझ से ख़जिल सरवरी हुई

    यूँ है तिरे फ़क़ीर की झोली भरी हुई

    नग़्मे पले हैं दौलत-ए-गुफ़्तार से तिरी

    पाया है नुत्क़ चश्म-ए-सुख़न-बार से तिरी

    ताक़त है दिल में नर्गिस-ए-बीमार से तिरी

    क्या क्या मिला है 'जोश' को सरकार से तिरी

    बाँके ख़याल हैं ख़म-ए-गर्दन लिए हुए

    हर शे'र की कलाई है कंगन लिए हुए

    लैली-ए-नहुफ़्ता हुस्न-ए-शर्मगीं

    तुझ पर निसार दौलत-ए-दुनिया मता-ए-दींं

    मंसूब मुझ से है जो ब-अंदाज़-ए-दिल-नशीं

    तेरी वो शाइ'री है मिरी शाइ'री नहीं

    आवाज़ा चर्ख़ पर है जो इस दर्द-मंद का

    गोया वो अक्स है तिरे क़द्द-ए-बुलंद का

    मेरे बयाँ में ये जो वफ़ूर-ए-सुरूर है

    ताक़-ए-सुख़न-वरी में जो ये शम-ए-तूर है

    ये जो मिरे चराग़ की ज़ौ दूर दूर है

    सरकार ही की मौज-ए-तबस्सुम का नूर है

    शे'रों में करवटें ये नहीं सोज़-ओ-साज़ की

    लहरें हैं ये हुज़ूर की ज़ुल्फ़-ए-दराज़ की

    मुझ रिंद-ए-हुस्न-कार की मय-ख़्वारियाँ पूछ

    इस ख़्वाब-ए-जाँ-फ़रोज़ की बेदारियाँ पूछ

    करती है क्यूँ शराब ख़िरद-बारियाँ पूछ

    बे-होशियों में क्यूँ है ये हुश्यारियाँ पूछ

    पीता हूँ वो जो ज़ुल्फ़ की रंगीं घटाओं में

    खिंचती है उन घनी हुई पलकों की छाँव में

    हुश्यार इस लिए हूँ कि मय-ख़्वार हूँ तिरा

    सय्याद-ए-शे'र हूँ कि गिरफ़्तार हूँ तिरा

    लहजा मलीह है कि नमक-ख़्वार हूँ तिरा

    सेह्हत ज़बान में है कि बीमार हूँ तिरा

    तेरे करम से शेर-ओ-अदब का इमाम हूँ

    शाहों पे ख़ंदा-ज़न हूँ कि तेरा ग़ुलाम हूँ

    मैं वो हूँ जिस के ग़म ने तिरे दिल में राह की

    इक उम्र जिस के इश्क़ में ख़ुद तू ने आह की

    सोया है शौक़ सेज पे तेरी निगाह की

    रातें कटी हैं साए में चश्म-ए-सियाह की

    क्यूँ कर शाख़-ए-गुल की लचक हो बयान में

    तेरी कमर का लोच है मेरी ज़बान में

    तर्शे हुए लबों के बहकते ख़िताब से

    ज़रतार काकुलों के महकते सहाब से

    सरशार अँखड़ियों के दहकते शबाब से

    मौज-ए-नफ़स के इत्र से मुखड़े की आब से

    बारह बरस तपा के ज़माना सुहाग का

    सींचा है तू ने बाग़ मिरे दिल की आग का

    गर्मी से जिस की बर्फ़ का देवता डरे वो आग

    शो'लों में ओस को जो मुबद्दल करे वो आग

    लौ से जो ज़महरीर का दामन भरे वो आग

    हद है जो नाम नार-ए-सक़र पर धरे वो आग

    जिस की लपट गले में जलाती है राग को

    पाला है क़ल्ब-ए-नाज़ में तू ने उस आग को

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    दिलीप कुमार

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    जोश मलीहाबादी

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    स्रोत:

    Kulliyat-e-Josh Maleeh aabadi (Pg. 995)

    • लेखक: Mohammad Nasir Khan Dr. Asmat Maleeh Abadi
      • संस्करण: 2007
      • प्रकाशक: Farid Book Depot (Pvt.) Ltd.
      • प्रकाशन वर्ष: 2007

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