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कल्ब-ए-हुसैन नादिर

1805 - 1878

कल्ब-ए-हुसैन नादिर

ग़ज़ल 8

अशआर 18

तिरी तारीफ़ हो साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन

ज़बानों से दहानों से तकल्लुम से बयानों से

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दरिया-ए-शराब उस ने बहाया है हमेशा

साक़ी से जो कश्ती के तलबगार हुए हैं

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ख़ंजर उठेगा तलवार इन से

ये बाज़ू मिरे आज़माए हुए हैं

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लोग कहते हैं कि फ़न्न-ए-शाइरी मनहूस है

शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलेक्टर हो गया

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हैं दीन के पाबंद दुनिया के मुक़य्यद

क्या इश्क़ ने इस भूल-भुलय्याँ से निकाला

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पुस्तकें 4

 

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