आबिद वदूद

ग़ज़ल 13

अशआर 12

हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप

और ये रात अपनी चादर है

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तिरे हाथों में है तिरी क़िस्मत

तिरी इज़्ज़त तिरे ही काम से है

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मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'

सुलगती धूप में इक छत बहुत ज़रूरी है

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अब क़फ़स और गुलिस्ताँ में कोई फ़र्क़ नहीं

हम को ख़ुशबू की तलब है ये सबा जानती है

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इस ए'तिबार पे काटी है हम ने उम्र-ए-अज़ीज़

सहर का वक़्त उजाले भी साथ लाएगा

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