आबिदा करामत
अशआर 7
औरों की आग क्या तुझे कुंदन बनाएगी
अपनी भी आग में कभी चुप-चाप जल के देख
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उस पेड़ के हर फल में मिरा हक़ ज़रा रखना
जिस नन्हे से पौदे को शजर मैं ने किया है
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हम तिरे साए में कुछ देर ठहरते कैसे
हम को जब धूप से वहशत नहीं करनी आई
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मैं उस की धुन में नए रास्ते पे जा निकली
दयार-ए-जाँ से मिरी रोज़ जो गुज़रता रहा
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वहीं पे झाड़ के उठते हैं फिर मता’-ए-हयात
कि ज़िंदगी को जहाँ जिस के नाम करते हैं
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